मध्य प्रदेश कम लागत से अधिक उत्पादन लेने हेतु नवीनतम  गेहूँ उत्पादन तकनीक

 

नवीनतम गेहूँ उत्पादन तकनीक
मध्य प्रदेश कम लागत से अधिक उत्पादन लेने हेतु नवीनतम  गेहूँ उत्पादन तकनीक

राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक परिदृश्य-

  क्षेत्रफल (मि.हे.) उत्पादन (मि.टन) उत्पादकता (क्विं/हे.)
भारत 29.7 93.5 31.5
मध्य प्रदेश 5.3 13.3 5.3
प्रदेश की भागीदार   18% 14% 18%
प्रदेश में गेहूँ  उत्पादकता से सम्बन्धित समस्याये 
(अ) असिंचित / सीमित सिंचाई क्षेत्रों से सम्बन्धित-
  • विगत सात वर्षों का तापक्रम औसत विवरण निम्न हैं। 
              निम्न तापक्रम में वृद्धि 2 – 30 सें 
              उच्च तापक्रम में वृद्धि 3 – 50 सें
  • नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक तापक्रम में अधिक उतार – चढ़ाव
  • वास्तविक उच्च ताप प्रतिरोधि किस्मों का अभाव जो बदलते परिवेश में सामंजस्य कर सके
  • अंकुरण के समय नमी का क्षरण तथा दाना भरते समय उच्च तापक्रम
  • असिंचित क्षेत्रों में रूट राट (Root Rot) (जड़ सड़न) की समस्या
  • सोयाबीन – गेहूँ फसल प्रणाली में असिंचित/अर्धसिंचित गेहूँ  की देरी से बोवाई (प्रचलित किस्में लम्बी अवधि की है)
  • प्रचलित किस्मों की कम ‘‘जल उपयोग‘‘ तथा ‘‘पोषक तत्व उपयोग‘‘ क्षमता

(ब.) सिंचित क्षेत्रों से सम्बन्धित

  • रबी मौसम में ठण्ड की अवधि कम Short winter
  • अनिश्चित मौसम
  • कल्ले निकलने के समय तथा परागण के समय तापक्रम में वृद्धि जिससे समय से पूर्व फसल में परिपक्वता आती है
  • परिणाम स्वरूप दानों का भराव कम
  • उच्च तापक्रम के कारण भूमि से वाष्पन अधिक जिससे सिंचाई की संख्या तथा सिंचाई के पानी की मात्रा में वृद्धि
  • कमाण्ड क्षेत्रों में भी समय पर सिंचाई के लिए पानी की अनुपलब्धता
  • सिंचित क्षेत्रों में Seepage  तथा जल भराव की समस्या
  • बहु फसल प्रणाली के कारण देरी से बुवाई का अधिक रकबा
प्रदेश में गेहूँ की काश्त का बदलता स्वरूप 
(अ)  पूर्व के वर्षों में असिंचित रकबा अधिक
  • अब पूर्ण रूप से असिंचित रकबे में उल्लेखनीय कमी
  • संचित नमी (Conserved Moisture)  में खेती लगभग समाप्त
  • स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति ने इस परिदृष्य को बदला
  • लगभग पूरे प्रदेश में कम से कम एक सिंचाई का उपयोग अतः पूर्णतः असिंचित रकबा लगभग समाप्त

(ब) सिंचित गेहूँ क्षेत्र में वास्तविक परिदृष्टि में सीमित सिंचाई उपलब्धता

  •  सिंचित शब्द से आभास होता है कि 5 -6 सिंचाई की उपलब्धता है
  •  वास्तविक रूप में पूरे प्रदेश में 5 – 6 सिंचाई अनुपलब्धता
  •  यहाँ तक कि समय से बोये गये गेहूँ में भी अधिकांश क्षेत्रों में मात्र 3 सिंचाई उपलब्धता
  •  देरी से बुवाई की स्थिति में मात्र दो सिंचाई उपलब्धता
उत्पादन तकनीक
खेत की तैयारी

·     ग्रीष्मकालीन जुताई

·     तीन वर्षों में एक बार गहरी जुताई

·     काली भारी मिट्टी को भुरभुरा (Fine Tilth) बनाना कठिन

·     रोटावेटर का प्रयोग उपयुक्त डिस्क हैरो का भी प्रयोग उपयुक्त बुवाई का उचित समय

·     असिंचित: मध्य अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक

·     अर्धसिंचित: नवम्बर माह का प्रथम पखवाड़ा

·     सिंचित (समय से): नवम्बर माह का द्वितीय पखवाड़ा

·     सिंचित (देरी से): दिसंबर माह का द्वितीय सप्ताह से

उपयुक्त किस्मों का चयन 
(अ) मालवा अंचल: रतलाम, मन्दसौर,इन्दौर,उज्जैन,शाजापुर,राजगढ़,सीहोर,धार,देवास तथा गुना का दक्षिणी भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 750 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: भारी काली मिट्टी
असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3269,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1500,
एच.आई. 1531,
एच.डी. 4672 (कठिया)
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 322,
जे.डब्ल्यू. 273,
एच.आई. 1544,
एच.आई. 8498 (कठिया),
एम.पी.ओ. 1215
जे.डब्ल्यू. 1203,
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2864,
एच.आई. 1454

(ब) निमाड अंचल: खण्डवा, खरगोन, धार एवं झाबुआ का भाग 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 500 से 1000 मि.मी.
मिट्टी: हल्की काली मिट्टी

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3020,
जे.डब्ल्यू. 3173,
एच.आई. 1500,
जे.डब्ल्यू. 3269
जे.डब्ल्यू. 1142,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जी.डब्ल्यू. 366,
एच.आई. 1418
इस क्षेत्र में देरी से बुआई से बचें समय से बुआई को प्राथमिकता क्योंकि पकने के समय पानी की कमी।
किस्में: जे.डब्ल्यू. 1202,
एच.आई. 1454

(स) विन्ध्य पठार: रायसेन, विदिशा, सागर, गुना का भाग 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1120 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: मध्य से भारी काली जमीन

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3173,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1531,
एच.आई. 8627(कठिया)
जे.डब्ल्यू. 1142,
जे.डब्ल्यू. 1201,
एच.आई. 1544,
जी.डब्ल्यू. 273,
जे.डब्ल्यू. 1106 (कठिया),
एच.आई. 8498 (कठिया),
एम.पी.ओ. 1215 (कठिया),
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2864,
डी.एल. 788- 2

(द) नर्मदा घाटी: जबलपुर, नरसिंहपुर, होषंगाबाद, हरदा 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1500 मि.मी.
मिट्टी: भारी काली एवं जलोढ मिट्टी

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1531,
जे.डब्ल्यू. 3211,
एच.डी. 4672 (कठिया)
जे.डब्ल्यू. 1142,
जी.डब्ल्यू. 322, जे.डब्ल्यू. 1201, एच.आई. 1544, जे.डब्ल्यू. 1106, एच.आई. 8498, जे.डब्ल्यू. 1215
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2932,

(य) बैनगंगा घाटी:  बालाघाट एवं सिवनी 
क्षेत्र की औसत वर्षा:  1250मि.मी.
मिट्टी:  जलोढ मिट्टी

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3269,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1544,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जी.डब्ल्यू. 366,
एच.आई. 1544,
राज 3067
जे.डब्ल्यू. 1202,
एच.डी. 2932,
डी.एल. 788- 2

(र) हवेली क्षेत्र: रीवा, जबलपुर का भाग, नरसिंहपुर का भाग 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1375 मि.मी.
मिट्टी: हल्की कंकड़युक्त मिट्टी
वर्षा के पानी को बंधान के द्वारा खेत में रोका जाता है।

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3020,
जे.डब्ल्यू. 3173,
जे.डब्ल्यू. 3269,
जे.डब्ल्यू. 17,
एच.आई. 1500,
जे.डब्ल्यू. 1142,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 1106,
जी.डब्ल्यू. 322,
एच.आई. 1544,
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एच.डी. 2864,
एच.डी. 2932,

ल. सतपुड़ा पठार: छिंदवाड़ा एवं बैतूल 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: हल्की कंकड़युक्त मिट्टी

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3173,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1531,
एच.आई. 1418,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 1215,
जी.डब्ल्यू. 366,
एच.डी. 2864,
एम.पी. 4010,
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,

(व) गिर्द क्षेत्र: ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना एवं दतिया का भाग 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 750 से 1000 मि.मी.
मिट्टी: जलोढ़ एवं हल्की संरचना वाली जमीनें

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3288,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 17,
एच.आई. 1531,
जे.डब्ल्यू. 3269,
एच.डी. 4672
एच.आई. 1544,
जी.डब्ल्यू. 273,
जी.डब्ल्यू. 322,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 1106,
जे.डब्ल्यू. 1215,
एच.आई. 8498
एम.पी. 4010,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एच.डी. 2932,
एच.डी. 2864

(ह) बुन्देलखण्ड क्षेत्र: दतिया, शिवपुरी, गुना का भाग टीकमगढ़,छतरपुर एवं पन्ना का भाग 
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1120 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: लाल एवं काली मिश्रित जमीन

असिंचित/अर्धसिंचित सिंचित(समय से) सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3288,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 17,
एच.आई. 1500,
एच.आई. 153
जे.डब्ल्यू. 1201,
जी.डब्ल्यू. 366,
राज 3067,
एम.पी.ओ. 1215,
एच.आई. 8498
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2864
विशेष : सभी क्षेत्रों में अत्यन्त देरी से बुवाई की स्थिति में किस्में: एच.डी. 2404, एम.पी. 1202  
जी डब्लू 173

लोक 1

एम पी 4010

एम पी 1202

 

एम पी 1203

एच डी 2864

मध्य प्रदेश  राज्य वर्ष 2003 से कठिया गेहूँ कृषि निर्यात जोन चिन्हित किया गया है।
प्रदेश के गेहू उत्पादन में कठिया किस्मों का 8 से 10 प्रतिशत  योगदान है।
उन्नत कठिया किस्म
एच डी 8713 (पूसा मंगल) ,एच आई 8381 (मालवश्री) ,एच आई 8498 (मालवशक्ति) ,एच आई 8663 (पोषण),एम पी ओ 1106 (सुधा),एम पी ओ 1215, एच डी 4672(मालवरत्न) ,एच आई 8627 (मालवर्कीति)
जे डब्लू 3211

जे डब्लू 3173

बीज की मात्रा 
·     औसत रूप में 100 कि.ग्रा./हे. (हजार दाने का वजन 40 ग्राम तक है)

·     हजार दाने का वजन 1 ग्राम बढ़ने पर (40 ग्राम के उपर), 2.5 कि.ग्रा. प्रति/हे. बढ़ाते जायें

·     असिंचित / अर्धसिंचित दशा में कतार से कतार की दूरी 25 से.मी.

·     सिंचित (समय से) बुवाई की स्थिति में 23 से.मी.

·     बीज को उर्वरक के साथ न मिलाये

·     मिलाने पर 32 प्रतिशत  अंकुरण की कमी (5 वर्षो के अनुसंधान आँकड़े)

·     क्योंक गेहूँ  की फसल में अनुकूल मौसम होने पर प्रत्येक अवस्था में क्षतिपूर्ति रखने की क्षमता है।

·     अतः बीज कम फर्टिलाइजर ड्रिल का प्रयोग करें।

बीजोपचार  
·     बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित कर ही बोयें, बीजोपचार के लिये कार्बाक्सिन 75%, wp/कार्बनडाजिम 50% wp 2.5-3.0 ग्राम दवा/किलो बीज के लिए पर्याप्त होती है।

·     टेबूकोनोजाल 1 ग्राम/किलो बीज से उरापचारित करने पर कण्डवा रोग से बचाव होता है।

·     पी एस बी कल्चर 5 ग्राम/किलो बीज से उपचारित करने पर फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है।

पोषक तत्वों का प्रयोग 
·     मिट्टी परीक्षण अवश्य करायें

·     परीक्षण के आधार पर नत्रजन, फास्फेट एवं पोटाश की मात्रा का निर्धारण अनुशंसा –

·     प्रदेश में लगभग सभी जिलों में सूक्ष्म तत्वों की कमी

·     25 कि.ग्रा./हे. की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग

·     जिंक सल्फेट का प्रयोग 3 फसल के उपरांत (न की प्रत्येक वर्ष)

  नत्रजन फास्फोरस  पोटाष
असिंचित 40 20 0 कि.ग्रा./हे.
अर्धसिंचित 60 30 15 कि.ग्रा./हे.
सिंचित 120 60 30 कि.ग्रा./हे.
देरी से 80 40 20 कि.ग्रा./हे.

सिंचाई –

  • जहाँ तक सम्भव हो स्प्रिंकलर का उपयोग करें
  • विश्वविद्यालय  से विकसित नयी किस्मों में 5 – 6 सिंचाई की आवश्यकता  नहीं
  • 3 – 4 सिंचाई पर्याप्त (55 – 60क्विंटल उपज)
  • एक सिंचाई: 40 – 45 दिनों बाद
  • दो सिंचाई: किरीट अवस्था, फूल निकलने के बाद
  • तीन सिंचाई: किरीट अवस्था, पूरे कल्ले निकलने पर, दाना बनने के समय
  • चार सिंचाई: किरीट अवस्था, पूरे कल्ले निकलने पर, फूल आने पर, दूधिया अवस्था

लागत में कमी (नयी तकनीक)
मेड़ – नाली पद्धति

·     बीज एवं उर्वरक में महंगे आदान इन्हें कम करने के लिये मेड़ – नाली पद्धति (FIRB) अपनाये बीज दर 30 – 35 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है

·     उर्वरक की खपत में कमी

·     नींदा नियंत्रण आसान

·     सिंचाई में पानी की कम मात्रा

अधिक गेहूँ  उत्पादन के विभिन्न तकनीकें
जीरो टिलेज तकनीक:- 
धान की पछेती फसल की कटाई के उपरांत खेत में समय पर गेहूँ की बोनी के लिय समय नहीं बचता और खेत ,खाली छोड़ने के अलावा किसान के पास विकल्प नहीं बचता ऐसी दशा में एक विशेष प्रकार से बनायी गयी बीज एवं खाद ड्रिल मशीन से गेहूँ  की बुवाई की जा सकती है।
जिसमें खेत में जुताई की आवश्यकता नहीं पड़ती धान की कटाई के उपरांत बिना जुताई किए मशीन द्वारा गेहूँ  की सीधी बुवाई करने की विधि को जीरो टिलेज कहा जाता है। इस विधि को अपनाकर गेहूँ  की बुवाई देर से होने पर होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है एवं खेत को तैयारी पर होने वाले खर्च को भी कम किया जा सकता है।
इस तकनीक को चिकनी मिट्टी के अलावा सभी प्रकार की भूमियों में किया जा सकता है। जीरो टिलेज मशीन साधारण ड्रिल की तरह ही है इसमें  टाइन चाकू की तरह है यह टाइन्स मिट्टी में नाली जैसी आकार की दरार बनाता है जिससे खाद एवं बीज उचित मात्रा एवं गहराई पर पहुँचता है। इस विधि के निम्न लाभ है।:-

जीरो टिलेज तकनीक के लाभ :-

·     इस मशीन द्वारा बुवाई करने से 85-90 प्रतिशत इंधन, उर्जा एवं समय की बचत की जा सकती है।

·     इस विधि को अपनाने से खरपतवारों का जमाव कम होता है।

·     इस मशीन के द्वारा 1-1.5 एकड़ भूमि की बुवाई 1 घंटे में की जा सकती हैं यह कम उर्जा की खपत तकनीक है अतः समय से बुवाई की दशा में इससे खेत तैयार करने की लागत 2000-2500 रू. प्रति हेक्टर की बचत होती है।

·     समय से बुवाई एवं 10-15 दिन खेत की तैयारी के समय को बचा कर बुवाई करने से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।

·     बुवाई शुरू करने से पहले मशीन का अंशशोधन कर ले जिससे खाद एवं बीज की उचित मात्रा डाली जा सके।

·     इस मशीन में सिर्फ दानेदार खाद का ही प्रयोग करें जिससे पाइपों में अवरोध उत्पन्न न हो।

·     मशीन के पीछे पाटा कभी न लगाएँ।

फरो इरीगेशन रेज्ड बेड (फर्व) मेड़ पर बुवाई तकनीक:-

·     मेड़ पर बुवाई तकनीक किसानों में प्रचलित कतार में बोनी या छिड़ककर बोनी से सर्वथा भिन्न है इस तकनीक में गेहूँ को ट्रेक्टर चलित रोजर कम ड्रिल से मेड़ों पर दो या तीन कतारों में बीज बोते है। इस तकनीक से खाद एवं बीज की बचत होती है। एवं उत्पादन भी प्रभावित नहीं होता है। इस तकनीक से उच्च गुणवत्ता वाला अधिक बीज उत्पादन किया जा सकता है।

 

मेड़ पर (फर्व) फसल लेने से लाभ

·     बीज, खाद एवं पानी की मात्रा में कमी एवं बचत, मेडों में संरक्षित नमी लम्बे समय तक फसल को उपलब्ध रहती है एवं पौधों का विकास अच्छा होता है।

·     गेहूँ उत्पादन लागत में कमी।

·     गेहूँ की खेती नालियों एवं मेड़ पर की जाती इससे फसल गिरने की समस्या नहीं होती। मेड पर फसल होने से जड़ों की वृद्धि अच्छी होती है एवं जड़ें गहराई से नमी एवं पोषक तत्व अवशोषित करते हैं।

·     इस विधि से गेहूँ उत्पादन में नालियो का प्रयोग सिंचाई के लिये किया जाता है यही नालियाँ अतिरिक्त पानी की निकासी में भी सहायक होती हैं।

·     दलहनी एवं तिलहनी फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।

·     मशीनो द्वारा निंदाई गुड़ाई भी की जा सकती है।

·     अवांछित पौधों को निकालने में आसानी रहती है।

वैष्विक उष्णता
·     एक शताब्दी के मौसम आँकड़ों से स्पष्ट है कि 2009 – 10 में तापमान (निम्न) 10 सें. अधिक तथा उच्च तापमान 20 सें. अधिक रहा

·     जवाहरलाल नेहरू कृषि  विश्वविद्यालय द्वारा जे.डब्ल्यू. 1142, जे.डव्ल्यू. 1201, जे.डब्ल्यू. 3211 एवं जे.डब्ल्यू. 3288 किस्में विकसित की गई उच्च ताप पर भी अधिक उत्पादन देने की क्षमता है।

जल तथा पोषक तत्व उपयोग क्षमता
·     निरंतर सिंचाई जल का भूमि में क्षरण तथा सिंचाई जल की कमी से फसल प्रभावित

·     अधिक ‘‘जल उपयोग क्षमता‘‘ एवं ‘‘पोषक तत्व उपयोग क्षमता‘‘ वाली किस्मों का विकास किया गया

किस्म अवस्था (उपज क्विंटल /हे.)
असिंचित एक सिंचाई दो सिंचाई
जे.डब्ल्यू. 17 18-20 30-32
जे.डब्ल्यू. 3020 18-20 32-34 40-42
जे.डब्ल्यू. 3173 18-20 34-36 40-42
जे.डब्ल्यू. 3211 18-20 37-39 43-45
जे.डब्ल्यू. 3269 18-20 37-39 43-45

 

काले गेरूआ के नये प्रभेद का प्रकोप (UG 99) 
·     मध्य प्रदेश काला गेरूआ के प्रकोप के लिये सबसे अनुकूल

·     गेरूआरोधी किस्मों के विकास के कारण नियंत्रण

जवाहरलाल नेहरू कृषि  विश्वविद्यालय द्वारा एम पी ओ 1215, एम पी 3336, एम पी 4010 किस्में विकसित की इन किस्मों को ‘‘कीनिया‘‘में परीक्षण किया गया। सभी किस्में भन्ह 99 के प्रतिरोधी एवं अधिक उत्पादन देने की क्षमता है।

गुणों का संकलन (Value addition)
·     म.प्र. का गेहूँ देश में गुणवत्ता में सर्वश्रेष्ठ दानों की चमक तथा दानों का वजन अधिक

·     दूसरे राज्यों की तुलना में प्रोटीन की मात्रा 1 प्रतिशत  अधिक

·     अभी तक प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने का प्रयास किया गया

·     वर्तमान में विकसित किस्में सूक्ष्म तत्वों से भरपूर है।

·     विश्वविद्यालय से विकसित किस्में जे.डब्ल्यू. 1202 एवं जे.डब्ल्यू. 1203 में, देश में विकसित अन्य किस्मों की अपेक्षा सबसे अधिक प्रोटीन

·     वर्तमान में  विश्वविद्यालय विकसित किस्मों में सबसे अधिक ‘‘विटामिन ए‘‘

·     सबसे अधिक लोहा, जिंक तथा मैगनीज

ज.ने.कृ.वि.वि. द्वारा विकसित किस्मों में गुणवत्ता का समादेश
ट्रेंट किस्म
जे.डब्ल्यू1201 जे.डब्ल्यू1203 जी.डब्ल्यू. 173 डी.एल. 788-2  एम.पी.4010
प्रोटीन प्रतिशत 12.64 13.50 12.20 12.4 12.43
सेडीमेंटशन वेल्यू 43 38 38 40 41
एक्सटेªक्षन रेट 70.6 70.9 70.4 69.5 69.9
ग्लूटेन इंडेक्स 63 52 51 56 48
बी – केरोटीन 3.10 3.77 2.19 2.61 2.81
लोहा (पी.पी.एम.) 42.2 33.9 37.0 37.1 40.5
जिंक (पी.पी.एम.) 41.9 35.3 33.9 33.6 34.4
मैंग्नीज (पी.पी.एम.) 51.9 49.7 41.3 50.8 43.5
म.प्र. का सकारात्मक पक्ष 
·     असिंचित क्षेत्र में कमी

·     सिंचाई की सुविधाऐं बढ़ी

·     स्प्रिंकलर पद्धति का उपयोग

·     उर्वरक की खपत बढ़ी

·     सूक्ष्म तत्वों का भी उपयोग बढ़ा

·     नये किस्मों के विकास की गति एवं उपलब्धता संतोषजनक

·     अच्छी गुणवत्ता के बीजों की उपलब्धता

·     उदाहरण के रूप में  विश्वविद्यालय ‘‘बीज उत्पादन‘‘ में देश  में प्रथम

·     कठिया गेहूँ में ‘‘करनाल बन्ट, यलोबेरी, कालाधब्बा‘‘ आदि के प्रकोप से मुक्त

·     अतः निर्यात की सम्भावना बढ़ी

खरपतवार नियंत्राण
खरपतवारों द्वारा 25-35 प्रतिशत  तक उपज में कमी आने की संभावना बनी रहती है। यह कमी फसल में खरपतवारों की सघनता पर निर्भर करती है उत्पादन में कमी के अलावा फसल को दिये गये पोषक तत्व, जल, प्रकाश एवं स्थान आदि का उपयोग खरपतवार के पौधों के स्वयं के द्वारा करने के कारण होती है  गेहूँ  में नीदाँ नियंत्रण उपायों को मुख्यतः तीन विधियों से किया जा सकता है।
गेहूँ की फसल में होने वाले खरपतवार मुख्यतः दो भागों में बांटे जाते है।
  • चौड़ी पत्ती – बथुआ, सेंजी, दूधी, कासनी, जंगली पालक अकरी, जंगली मटर, कृष्णनील, सत्यानाषी हिरनखुरी आदि।
  • सकरी पत्ती – मोथा, कांस, जंगली जई, चिरैया बाजरा एवं अन्य घासें।
रासायनिक विधि:-
रासायनिक विधि से नींदा तक को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि इससे समय की बचत होती है। रूप से भी लाभप्रद रहता है। इस विधि से नींदा नियंत्रण निम्न प्रकार करते हैं –

नींदनाशक रसायनों की मात्रा एवं प्रयोग समय:-

नींदानाशक खरपतवार दर/हे. प्रयोग का समय
पेण्डीमिथेलीन  संकरी एवं चौड़ी 1.0 किग्रा. बुवाई के तुरन्त बाद
सल्फोसल्फूरान  संकरी एवं चौड़ी 33.5 ग्रा. बुवाई के 35 दिन तक
मेट्रीब्यूजिन  संकरी एवं चौड़ी 250 ग्रा. बुवाई के 35 दिन तक
2, 4 – डी  चौड़ी पत्तिया 0.4 – 0.5 किग्रा. बुवाई के 35 दिन तक
आइसोप्रोपयूरान संकर पत्तिया 750 ग्रा. बुवाई के 20 दिन तक
आइसोप्रोपयूरान +2, 4 – डी चौड़ी पत्तिया एवं संकरी पत्तिया 750 ग्रा +750 ग्रा. बुवाई के 35 दिन तक
गेहूँ के विपुल उत्पादन के लिए मुख्य आवश्यक बातें:-
·     मिट्टी की जांच के बाद उर्वरकों को प्रयोग करें। संतुलित मात्रा में समय पर उर्वरक दें। उर्वरकों का सही प्लेसमेंट उत्पादन बढ़ाने में एवं उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने में योगदान देता है। उर्वरको को बीज से 2-3 सेमी नीचे डाले। कार्बनिक एवं जैविक स्रोतों का भरपूर उपयोग करे जिससे मृदा स्वास्थ्य एवं उत्पादकता बढ़ती है।
  • बीजदर अनुशंसित मात्रा में उपयोग करे। क्षेत्र विशेष के अनुसार शुद्ध, स्वस्थ्य, कीट एवं रोग रोधी किस्मों का चयन करें। समय पर बोनी करे। बीज एवं खाद एक साथ मिलाकर बोनी न करें। देर से बुवाई की अवस्था में संसाधन प्रबंधन तकनीक जैसे, जीरो टिलेज का प्रयोग करें। यथासंभव बुवाई लाइनों में करें क्रासिंग न करें। पौध संख्या अनुशंसा से ज्यादा न करें।
  • खरपतवार नियंत्रक उपाय समय पर करें। खरपतवारनाशी दवाओं का इस्तेमाल करते समय ध्यान दे कि फसल में नीदाओं की सघनता एवं नीदाओं के प्रकार के हिसाब से रसायन का चयन करें। खरपतवार नाशी दवा का उपयोग मृदा में पर्याप्त नमी होने की दशा में सही मात्रा एवं घोल का इस्तेमाल करें।

·     गेहूँ  में सिंचाई मिट्टी का प्रकार सिंचाई साधन, सिंचाई उपकरण को ध्यान में रखकर क्रान्तिक अवस्थाओं पर सिंचाई देवे।

  • कीट एवं रोग नियंत्रक उपाय समय पर करें।

·     गेहूँ फसल की कटाई उपरांत नरवई खेतों में न जलायें, नरवई जलाने से खेतों की मृदा में उपलब्ध लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं का ह्रास होता हैं नरवई की आग से लोगों के घरों में भी आग लगती है। एवं जन व पशुधन हानि की भी संभावना रहती है। गेहूँ  की फसल कटाई उपरांत खेतों में समुचित नमी की दशा में रोटावेटर चलाने से नरवई कटकर मिट्टी में मिल जाती है जो कि मृदा के लिए लाभदायक भी है।

·     आज के समय में रसायनों के असंयमित प्रयोग से खेती की उत्पादन लागत बढ़ रही है। आवश्यकता है कि इस उत्पादन लागत को कम किया जाये। उत्पादन लागत को कम करने का सस्ता एवं प्रभावी तरीका है समन्वित प्रबंधन उपायों को अपनाना।

·     मौसम के परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती के बढ़ते तापमान एवं अनिश्चितता के कारण दिन प्रतिदिन कीड़े एवं बीमारियों की समस्या फसलों में बढ़ रही है। इनके प्रभावी प्रबंधन हेतु समन्वित उपायों को अपनाना नितांत आवश्यक है।

·     खेती में उत्पादन प्राप्त करने के लिये समय पर कुशल प्रबंधन एवं सही निर्णय आवश्यक है कई बार किसान भाई खरपतवार नियंत्रक उपायों को देर से अपनाते हैं जिसके कारण खरपतवार फसल की क्रांतिक अवस्था निकल जाती है एवं खरपतवार के पौधे मजबूत हो जाते हैं फिर उनका नियंत्रण रसायनों से भी मुश्किल होता है।

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