देश का आबादी जिस रफ्तार से बढ़ी है उससे किसान बढ़ने चाहिए थे, लेकिन जनगणना, 2001 के अनुसार जहां वे 127 लाख थे, वहीं जनगणना 2011 में ये घट कर 118.7 लाख रह गये हैं

किसान हेल्प के डॉ. आरके सिंह बताते हैं, “देश का आबादी जिस रफ्तार से बढ़ी है उससे किसान बढ़ने चाहिए थे,

लेकिन जनगणना, 2001 के अनुसार जहां वे 127 लाख थे, वहीं जनगणना  2011 में ये घट कर 118.7 लाख रह गये हैं

इसकी मुख्य वजह खेती का फायदे का न होना और जमीनों का खत्म होना है।”

  • 33 लाख किसान पंजाब में कर्ज में डूबे
  • 79 लाख से ज्यादा किसान परिवार उत्तर प्रदेश में कर्जे में दबे
  • 65 हजार किसान पिछले दो दशकों में अकेले महाराष्ट में ही दे चुके हैं जान
  • 60 हजार करोड़ से ज्यादा कर्ज मध्य प्रदेश के 50 लाख किसानों पर

ग्रामीण मामलों के प्रसिद्ध जानकार और मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता पी. साईंनाथ मानते हैं कि ये आंदोलन अब रुकने वाला नहीं है। गाँव कनेक्शन से फ़ोन साक्षात्कार में उन्होंनेबताया, “पिछले दो दशकों में अकेले महाराष्ट में ही 65 हजार किसान जान दे चुके हैं। किसानों के लिए कर्ज ही नहीं, बल्कि उनकी उपज का उचित लाभ मिले, यह भी बड़ामुद्दा है। मगर केन्द्र से लेकर प्रदेश सरकारों का ध्यान किसानों को मुख्य मुद्दे पर नहीं है।”

महाराष्ट्र में आंदोलन में शामिल संगठन किसान हेल्प के राष्ट्रीय सचिव देवानंद निकाजू कहते हैं, “इस साल महाराष्ट्र में संतरा सड़क पर फेंका गया है, कभी 4-5 रुपए पीसका दाम मिलता था इस बार 1 रुपया मुश्किल था। ऐसा ही हाल कपास और सोयाबीन का भी है। अगर यही हाल रहा तो 2019 के चुनाव में किसान इसका जवाब देंगे।”

मध्यप्रदेश में आम आदमी किसान यूनियन से जुड़े कृषि विशेषज्ञ केदार सिरोही कहते हैं, “कृषि प्रदेश का विषय है तो सरकार कुछ भी कर सकती है। सरकारें कहती हैं,किसानों की आमदनी बढ़ाएंगे, लेकिन कैसे? शहर में दूध 60-70 रुपए बिकता है, जबकि गाँव में वही 20 में खरीदा जाता है। कमाई बिचौलिए कर रहे हैं, इन्हें हटाए बिनाकुछ नहीं होगा। सरकार को कर्ज़माफी, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू ही करनी ही होगी।”

हेल्प संगठन के राष्टीय अध्यक्ष डॉ. आरके सिंह कहते हैं, “किसानों की यह दुर्दशा कोई दो वर्ष, पांच वर्ष में बनी नीतियों की बात नहीं, कृषि क्षेत्र में अनुभवहीन नीतिनिर्धारकों द्वारा 6-7 दशकों में लिये गये गलत निर्णयों का आत्मघाती परिणाम है और सभी राजनीतिक दल अपने गलत निर्णयों के लिए अनुपातिक रूप से जिम्मेदार हैं।”

वर्ष 2008 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अन्तर्गत किसानों की दशा के मूल्यांकन के लिए एक सर्वेक्षण ‘द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑव फारमरस्‌’ नाम से किया गया। इसअध्ययन के अनुसार, घाटे का सौदा मानकर लगभग 27 फीसदी किसान खेती करना नापसंद करते हैं। 40 प्रतिशत किसानों का कहना है कि विकल्प होने की स्थिति में वेकोई और काम करना पसंद करेंगे।”

देश में किसानों की हालत किस कदर बदतर होती जा रही है, उससे कृषि प्रधान देश में किसानों की घटती जनसंख्या से आसानी से समझा जा सकता है।

 

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