कर्ज माफी, केंद्र ने खीचे हाथ

तो बेचारे राज्यों को अपने बूते किसानों के कर्ज माफ करने का बोझ उठाना होगा! पर क्या यह बोझ उठा सकना उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि सरकारों के बस में है? वित्त मंत्री अरूण जेतली ने आज दो टूक शब्दों में कहा है कि ऐसी कर्ज माफी के लिए प्रदेश सरकारों को अपने बूते पैसे का जुगाड़ करना होगा! यह बहुत मुश्किल है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आज दिल्ली में प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, सड़क परिवहन मंत्री से मुलाकात की। मुख्यमंत्री की पहली चिंता है कि केंद्र से तमाम जरियों से पैसा यूपी के खजाने में पहुंचे। केंद्र की अलग-अलग संस्थाओं से किसी भी बहाने पैसा ट्रांसफर हो यूपी जाए तो नए बजट प्रस्ताव बना, विधानसभा सत्र बुला किसानों की कर्ज माफी के वायदे पर अमल हो।

संदेह नहीं कि यूपी में वायदे के चलते दूसरे राज्यों के किसानों को आंदोलन का बहाना मिला। उसी से महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में आग भड़की। अब महाराष्ट्र ने भी किसान कर्ज माफी की घोषणा कर दी है। मध्यप्रदेश ने यों अभी ब्याज माफ करने की ही बात कही है लेकिन किसान वहां भी कर्ज माफी की गाजर लटकी देख रहे है। सो मौटे तौर पर 70-80 हजार करोड रू की कर्ज माफी का तीन राज्यों से आंकडा बना है। यह छोटा आंकडा नहीं है। तभी कई जानकार सोच रहे थे कि आगे एक के बाद एक दूसरे राज्य के सिलसिले को समझते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश के किसानों के कर्ज केंद्रीय स्तर पर माफ करा सकते है। किसान की तकलीफ यदि देशव्यापी है और तमिलनाड़ु से ले कर पंजाब तक में खदबदाहट है तो एक दफा पूरे देश के किसानों को ही कर्ज मुक्त क्यों न बना दिया जाए?

अनुमान है कि पूरे देश के किसानों की तात्कालिक किस्म की कोई तीन लाख करोड़ रू की देनदारी है। मनमोहन सरकार ने सन् 2008 में कोई 55 हजार करोड रू किसानों के माफ किए थे। उस माफी के बाद 10 सालों में तीन लाख करोड का कर्ज खडा होना खेती की बदहाली का प्रमाण है तो किसान की कर्ज पर निर्भरता का सबूत भी।

इसलिए अलग-अलग राज्यों में राज्य स्तर पर कर्ज माफी से बात नहीं बनने वाली है। जिन राज्यों में कर्ज माफ नहीं होंगे वहां के किसान भड़केगें। भेदभाव देखेंगे। सबसे बडी बात यह है कि कर्ज माफ करने वाली प्रदेश सरकारों की कमर टूटेगी। प्रदेशों के बस में नहीं है कि किसानों के कर्ज अपने खजाने की बचत से माफ कर दे। उत्तरप्रदेश सरकार या महाराष्ट्र सरकार ने माफी की घोषणा तो कर दी है लेकिन इनका यह काम तभी होगा जब किसी और मद से केंद्र से पैसा आए और उसमें हेराफेरी कर उससे कर्ज माफी खाते में एडजस्ट किया जाए। प्रदेश सरकारों के पास सरप्लस पैसा है कहां जो वे बांटे। दिल्ली में आज मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश सरकार पर भारी आर्थिक बोझ के हवाले चर्चाएं की। यूपी के फाईनेंस की कमर इसलिए टूटी हुई है क्योंकि एक तरफ तो सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों से कर्मचारियों के वेतन खाते में 66 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त खर्च का बोझ है तो दूसरी और किसानों के कर्ज माफ करने है। इस सबके लिए प्रदेश सरकार को खुद कर्ज लेना होगा। इतना बड़ा कर्ज केंद्र सरकार की गारंटी से ही संभव है। या प्रदेश सरकारे विकास योजनाओं का खर्च पूरी तरह रोके और केंद्र से सरकार को आ रहे अलग-अलग मदों के पैसे को कर्ज माफी की तरफ मोड़े।

मतलब उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की सेहत खराब हो या केंद्र की मोदी सरकार की, इस पर सोच-विचार करते हुए प्रभारी ढ़ंग से किसानों को खुश कर सकना भाजपा की आज नंबर एक चुनौती है। सरकार और भाजपा दोनों के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि अच्छे मानसून और बंपर फसल के बावजूद किसान को क्यों नहीं ऐसी कमाई हुई जो वह फसल पैदा करने के खातिर लिए गए कर्ज को चुका नहीं पा रहा है। दो ही वजह है। एक, उसकी फसल के खरीदार नहीं हैं और खरीद है तो न लागत अनुसार पैसा है और न फटाफट पेमेंट है।

पूरे मामले में और मध्यप्रदेश के उदाहरण में दस तरह की पैदावार की सरकार की खरीद ने भी समस्या बनाई है। मामला धीऱे-धीरे यह बना है कि दुनिया में यदि गेंहू, कपास, सोयाबीन, आलू-प्याज के दाम गिरे हुए है तो इस सबका बोझ सरकार उठाए। सरकार हर चीज खरीदे। दाल भी खरीदे तो टमाटर, आलू और प्याज भी खरीदे। निर्यात बंद करे और बाजार को बांध दे। इसका अर्थ हुआ कि किसान की बंपर पैदावार भी अब समस्या है। जितनी ज्यादा पैदावार उतना बड़ा आर्थिक संकट। 2015-16 में यदि कृषि क्षेत्र 0.7 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ा तो वह ज्यादा ठिक है। तब ऐसा आंदोलन नहीं हुआ था। गुजरे साल अच्छे मानसून ने फसलों का सूखा नहीं बनने दिया और 4.9 प्रतिशत की विकास दर रही तो किसान आलू 3-4 रू किलों बेचने को मजबूर हुआ। गेंहू बिका नहीं और आढतियों, मंडियों ने नकदी और मंदी के चलते हाथ खींचे रखे। नतीजतन सरकार पर यह बोझ आ बना है कि तब वह किसान का कर्ज चुकाएं।

इस नाते संकट को प्रदेशों पर छोड़े रखना केंद्र की समझदारी है तो कुल मिला कर संकट को टालने, जिम्मेवारी से पिंड छुड़ाने की एप्रोच भी है। केंद्र सरकार की दिक्कत है कि अखिल भारतीय स्तर पर फैसला करें तो वैश्विक रैटिंग एजेंसियों की निगाह में सरकार तुरंत गैर-जिम्मेदार बनेगी। भारत का वित्तिय घाटा सुरसा की तरह बढ़ दस तरह के नए संकट पैदा कर देगा।

जो हो, केंद्र सरकार ने हाथ खड़े कर दिए है। उस नाते देखना दिलचस्प होगा कि महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकारें किस समझदारी से अपने बहीखातों में हेरफेर करके किसानों से वायदा पूरा करती है? इनकी एप्रोच बाकि के लिए बानगी होगी।

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.