उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना उपयुक्त है। यदि किसी कारणवश मृदा का परीक्षण न हुआ तो उर्वरकों का प्रयोग निम्न प्रकार किया जायः
स्थितिः सिंचित दशा में रोपाई | ||||
(क) अधिक उपजदानी प्रजातियां : उर्वरक की मात्राः किलो/हेक्टर | ||||
क्र०सं० | प्रजातियां | नत्रजन | फास्फोरस | पोटाश |
(क) | शीघ्र पकने वाली | 120 | 60 | 60 |
प्रयोग विधिः नत्रजन की एक चौथाई भाग तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूर्ण मात्रा कूंड में बीज के नीचे डालें, शेष नत्रजन का दो चौथाई भाग कल्ले फूटते समय तथा शेष एक चौथाई भाग बाली बनने की प्रारम्भिक अवस्था पर प्रयोग करें। | ||||
क्र०सं० | प्रजातियां | नत्रजन | फास्फोरस | पोटाश |
(ख) | मध्यम देर से पकने वाली प्रयोग विधि | 150 | 60 | 60 |
(ग) | सुगन्धित धान (बौनी) प्रयोग विधि | 120 | 60 | 60 |
(2) देशी प्रजातियां : उर्वरक की मात्रा-कि०/हे० | ||||
क्र०सं० | प्रजातियां | नत्रजन | फास्फोरस | पोटाश |
(क) | शीघ्र पकने वाली | 60 | 30 | 30 |
(ख) | मध्यम देर से पकने वाली | 60 | 30 | 30 |
(ग) | सुगन्धित धान | 60 | 30 | 30 |
प्रयोग विधिः रोपाई के सप्ताह बाद एक तिहाई नत्रजन तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई के पूर्व तथा नत्रजन की शेष मात्रा को बराबर-बराबर दो बार में कल्ले फूटते समय तथा बाली बनने की प्रारम्भिक अवस्था पर प्रयोग करें। दाना बनने के बाद उर्वरक का प्रयोग न करें। |
सीधी बुवाईः | |||
(1) क उपज देने वाली प्रजातियाँ | |||
क्र०सं० | नत्रजन | फास्फोरस | पोटाश |
(क) | 100-120 | 50-60 | 50-60 |
प्रयोग विधिः फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई से पूर्व तथा नत्रजन की एक तिहाई मात्रा रोपाई के 7 दिनों के बाद, एक तिहाई मात्रा कल्ले फूटते समय तथा एक तिहाई मात्रा बाली बनने की अवस्था पर टापड्रेसिंग द्वारा प्रयोग करें। | |||
(ख) देशी प्रजातियां: उर्वरक की मात्राः किलो/हेक्टर | |||
क्र०सं० | नत्रजन | फास्फोरस | पोटाश |
(ख) | 60 | 30 | 30 |
प्रयोग विधिः तदैव वर्षा आधारित दशा में: उर्वरक की मात्रा- किलो/हेक्टर | |||
(2) देशी प्रजातियां : उर्वरक की मात्रा-कि०/हे० | |||
क्र०सं० | नत्रजन | फास्फोरस | पोटाश |
(क) | 60 | 30 | 30 |
प्रयोग विधिः सम्पूर्ण उर्वरक बुवाई के समय बीज के नीचे कूंडों में प्रयोग करें। |
जायद में मूँग की खेती करने से धान की फसल में 15 किग्रा० नत्रजन की बचत होता है। इसी प्रकार हरी खाद (सनई अथवा ढैंचा) से लगभग 40-60 किग्रा० नत्रजन की बचत होती है। अतः इस दिशा में नत्रजन उर्वरक तद्नुसार प्रयोग करें। यदि कम्पोस्ट 10-12 टन का प्रयोग किया जाये तो उसमें भी तत्व प्राप्त होते हैं तथा मृदा का भौतिक सुधार होता है।
ऊसरीली क्षेत्र में हरी खाद के लिए ढैंचे की बुवाई करना विशेष रूप से लाभ प्रद होता है। 2 कुन्तल प्रति हेक्टर जिप्सम का प्रयोग बेसल के रूप में किया जा सकता है। इससे धान की फसल को गन्धक की आवश्यकता पूरी हो जायेगी। सिंगल सुपर फास्फेट के प्रयोग से भी गन्धक की कमी दूर की जा सकती है। पोटाश का प्रयोग बेसल ड्रेसिंग में किया जाय किन्तु हल्की दोमट भूमि में पोटाश उर्वरक को यूरिया के साथ टापड्रेसिंग में प्रयोग किया जाना उचित रहता है।
अतः ऐसी भूमि में रोपाई के समय पोटाश की आधी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए और शेष आधी मात्रा को दो बार में नत्रजन के साथ टाप-ड्रेसिंग करना चाहिए। जिन स्थानों में धान के खेतों में पानी रूकता हो और उसके निकास की सुविधा न हो रोपाई के समय ही सारा उर्वरक देना उचित होगा। यदि किसी कारण वश यह सम्भव न हो तो ऐसे क्षेत्रों में यूरिया के 2-3 प्रतिशत घोल का छिड़काव दो बार कल्ला निकलते समय तथा बाली निकलने की प्रारम्भिक अवस्था पर करना लाभदायक होगा। यूरिया की टाप-ड्रेसिंग के पूर्व खेत से पानी निकाल देना चाहिए और यदि किसी क्षेत्र में ये सम्भव न हो तो यूरिया को उसकी दुगुनी मिट्टी में एक चौथाई गोबर की खाद मिलाकर 24 घन्टे तक रख देना चाहिए। ऐसा करने से यूरिया अमोनियम कार्बोनेट के रूप में बदल जाती है और रिसाव द्वारा नष्ट नहीं होता है।
5. जल प्रबन्ध
प्रदेश में सिंचन क्षमता के उपलब्ध होते हुए भी धान का लगभग 60-62 प्रतिशत क्षेत्र ही सिचिंत है, जबकि धान की फसल को खाद्यान फसलों में सबसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है। फसल को कुछ विशेष अवस्थाओं में रोपाई के बाद एक सप्ताह तक कल्ले फूटने, बाली निकलने फूल, खिलने तथा दाना भरते समय खेत में पानी बना रहना चाहिए। फूल खिलने की अवस्था पानी के लिए अति संवेदनशील हैं। परीक्षणों के आधार पर यह पाया गया है कि धान की अधिक उपज लेने के लिए लगातार पानी भरा रहना आवश्यक नहीं है इसके लिए खेत की सतह से पानी अदृश्य होने के एक दिन बाद 5-7 सेमी० सिंचाई करना उपयुक्त होता है। यदि वर्षा के अभाव के कारण पानी की कमी दिखाई दे तो सिंचाई अवश्य करें। खेत में पानी रहने से फास्फोरस, लोहा तथा मैंगनीज तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है और खरपतवार भी कम उगते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कल्ले निकलते समय 5 सेमी० से अधिक पानी अधिक समय तक धान के खेत में भरा रहना भी हानिकारक होता है। अतः जिन क्षेत्रों में पानी भरा रहता हो वहॉ जल निकासी का प्रबन्ध करना बहुत आवश्यक है, अन्यथा उत्पादन पर कुप्रभाव पडेगा। सिंचित दशा में खेत में निरन्तर पानी भरा रहने की दशा में खेत से पानी अदृश्य होने की स्थिति में एक दिन बाद 5 से 7 सेमी० तक पानी भर दिया जाय इससे सिंचाई के जल में भी बचत होगी।
5.01 बीज शोधन
नर्सरी डालने से पूर्व बीज शोधन अवश्य कर लें। इसके लिए जहां पर जीवाणु झुलसा या जीवाणु धारी रोग की समस्या हो वहां पर 25 किग्रा० बीज के लिए 4 ग्राम स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट या 40 ग्राम प्लान्टोमाइसीन को मिलाकर पानी में रात भर भिगो दें। दूसरे दिन छाया में सुखाकर नर्सरी डालें। यदि शाकाणु झुलसा की समस्या क्षेत्रों में नहीं है तो 25 किग्रा० बीज को रातभर पानी में भिगोने के बाद दूसरे दिन निकाल कर अतिरिक्त पानी निकल जाने के बाद 75 ग्राम थीरम या 50 ग्राम कार्बेन्डाजिम को 8-10 लीटर पानी में घोलकर बीज में मिला दिया जाये इसके बाद छाया में अंकुरित करके नर्सरी में डाली जाये। बीज शोधन हेतु 5 ग्राम प्रति किग्रा० बीज ट्राइकोडरमा का प्रयोग किया जाये।
5.02 नर्सरी
एक हेक्टर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 800-1000 वर्ग मी० क्षेत्रफल में महीन धान का 30 किग्रा० मध्यम धान का 35 किग्रा० और मोटे धान का 40 किग्रा० बीज पौध तैयार करने हेतु पर्याप्त होता है। ऊसर भूमि में यह मात्रा सवा गुनी कर दी जाय। एक हेक्टर नर्सरी से लगभग 15 हेक्टर क्षेत्रफल की रोपाई होती है। समय से नर्सरी में बीज डालें और नर्सरी में 100 किग्रा० नत्रजन तथा 50 किग्रा० फास्फोरस प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करें। ट्राइकोडर्मा का एक छिड़काव नर्सरी लगने के 10 दिन के अन्दर कर देना चाहिए। बुवाई के 10-14 दिन बाद एक सुरक्षात्मक छिड़काव रोगों तथा कीटों के बचाव हेतु करें खैरा रोग के लिए एक सुरक्षात्मक छिड़काव 5 किग्रा० जिंक सल्फेट का 20 किलो यूरिया या 2.5 किग्रा० बुझे हुए चूने के साथ 1000 लीटर पानी के साथ प्रति हेक्टर की दर से पहला छिड़काव बुवाई के 10 दिन बाद एवं दूसरा 20 दिन बाद करना चाहिए। सफेदा रोग के नियंत्रण हेतु 4 किलो फेरस सल्फेट का 20 किलो यूरिया के घोल के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। झोंका रोग की रोकथाम के लिए 500 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० का प्रति हे० छिड़काव करें तथा भूरे धब्बे के रोग से बचने के लिए 2 किलोग्राम मैंकोजेब 75 प्रतिशत डब्ल्यू०पी० का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें नर्सरी में लगने वाले कीटों से बचाव हेतु 1.25 लीटर क्लोरोपाइरोफास 20 ई०सी० प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। नर्सरी में पानी का तापक्रम बढ़ने पर उसे निकाल कर पुनः पानी देना सुनिश्चित करें।
5.03 सीधी बुवाईः
मैदानी क्षेत्रों में सीधी बुवाई की दशा में 90 से 110 दिन में पकने वाली प्रजातियों को चुनना चाहिए। बुवाई मध्य जून से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक समाप्त कर देना चाहिए। 40 से 50 किग्रा० बीज प्रति हेक्टर की दर से 20 सेमी० की दूरी पर लाइनों में बोना चाहिए। पंक्तियों में बुवाई करने से यांत्रिक विधि से खरपतवार नियंत्रण में सुविधा होती है तथा पौध सुरक्षा उपचार भी सुगमतापूर्वक किये जा सकते हैं। इस विधि से बुवाई करने पर पौधों की संख्या भी सुनिश्चित की जा सकती है।
यदि लेव लगाकर धान की बुवाई करनी हो तो 100 से 110 किग्रा० बीज प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करें। बीज को 24 घण्टे पानी में भिगोकर 36-48 घण्टे तक ढेर बनाकर रखना चाहिए जिससे बीज में अंकुरण प्रारम्भ हो जाय। इस अंकुरित बीज को खेत में लेव लगाकर दो सेमी० खड़े पानी में छिड़कवां बोया जाना चाहिए। आगरा मण्डल में, जहां कुओं का पानी खारा है और धान की पौध अच्छी प्रकार तैयार नहीं हो सकती, इस विधि को अपनाना ज्यादा अच्छा है।
5.04 समय से रोपाई
130-140 दिन में पकने वाली धान की प्रजातियों जैसे पन्त 12, पन्त धान-4 और सरजू-52 आदि की रोपाई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के मध्य तक अवश्य कर लेनी चाहिए, अन्यथा उसके बाद उपज में निरन्तर कमी होने लगती है। यह कमी 30-40 किग्रा० प्रतिदिन प्रति हेक्टर होती है। शीघ्र पकने वाली प्रजातियों जैसे साकेत-4, प्रसाद, गोविन्द, मनहर पंत-10, आई०आर-36 आदि की रोपाई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के अन्तिम सप्ताह तक की जा सकती है। देर से पकने वाली प्रजातियां जैसे क्रांस-116, टा-100,टा-22, तथा सुगन्धित धान जैसे टा-3, एन-12 आदि की रोपाई जुलाई के अन्तिम सप्ताह तक की जानी चाहिए। अधिक उपज देने वाली सुगन्धित किस्में जैसे पूसा बासमती-1 की रोपाई 15 जुलाई तक कर देनी चाहिए। क्वारी और कार्तिकी धान की बौनी प्रजातियों को 21-25 दिन की पौध की रोपाई के लिए उपयुक्त होती है। देशी तथा देर से पकने वाली प्रजातियों को 30-35 दिन की पौध रोपाई के लिए उपयुक्त होती है। ऊसर में रोपार्इ हेतु 35 दिन की पौध का प्रयोग करें तथा एक स्थान पर 2 से 3 पौधे लगायें तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सेमी० रखी जाय। शीघ्र मध्यम एवं विलम्ब से पकने वाली प्रजातियों की नर्सरी की रोपाई विषम परिस्थितियों में क्रमशः 30-35, 40-45 एवं 50-55 दिनों में की जा सकती है। स्वर्णा, सोना महसूरी व महसूरी की मई के अन्त से 15 जून तक रोपाई कर देनी चाहिए। विलम्ब से रोपाई करने से फूल आने में कठिनाई होती है।
5.05 उचित गहराई व दूरी पर रोपाई
बौनी प्रजातियों की पौध की रोपाई 3-4 सेमी० से अधिक गहराई पर नहीं करना चाहिए। अन्यथा कल्ले कम निकलते है और उपज कम हो जाती है। साधारण उर्वरा भूमि में पंक्तियों व पौधों की दूरी 20×10 सेमी० उर्वरा भूमि में 20×15 सेमी० रखें। एक स्थान पर 2-3 पौध लगाने चाहिए। यदि रोपाई में देर हो जाय तो एक स्थान पर 3-4 पौध लगाना उचित होगा। साथ ही पंक्तियों से पंक्तियों की दूरी 5 सेमी० कम कर देनी चाहिए। इस बात पर विशेष ध्यान दें कि प्रति वर्ग मीटर क्षेत्रफल में सामान्य स्थिति में 50 हिल अवश्य होना चाहिए ऊसर तथा देर से रोपाई की स्थिति में 65-70 हिल होनी चाहिए।
5.06 धान की रोपाई में पैडी ट्रान्सप्लान्टर का प्रयोग
पैडी ट्रान्सप्लान्टर छः लाइन वाली हस्तचलित तथा शक्ति चलित आठ लाइन वाली बटन की रोपाई की मशीन है। इस यन्त्र से रोपाई हेतु मैट टाइप नर्सरी की आवश्यकता होती है। इस नर्सरी में धान का अंकुरित बीज उपयोग किया जाता है। इस मशीन द्वारा कतार से कतार की दूरी 20 सेमी० निश्चित है अतः 20-10 सेमी० की दूरी पर रोपाई हेतु 50 किग्रा० प्रति हेक्टर बीज की आवश्यकता होती है। अच्छा अनुकरण 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम पर प्राप्त होता है। धान को पानी में 24 घण्टे भिगोने के पश्चात् छाया में या बोरे में दो या तीन दिन अथवा ठीक से अंकुरण होने तक ढक कर रखना चाहिए। बोरे पर अंकुर निकलने के समय तक पानी छिड़कते रहें। अंकुर फूटने पर बीज नर्सरी में बोने के लिए तैयार समझना चाहिए।
5.07 मैट टाइप नर्सरी उगाना
धान की नर्सरी उगाने के लिए 5-6 सेमी० गहराई तक की खेत की ऊपरी सतह की मिट्टी एकत्र कर लेते हैं। इसे बारीक कूटकर छलने से छान लेते हैं। जिस क्षेत्र में नर्सरी डालनी है। उसमें अच्छी प्रकार पडलिंग करके पाटा कर दें। तत्पश्चात् खेत का पानी निकाल दें और एक या दो दिन तक ऐसे ही रहने दें जिससे सतह पर पतली पर्तें बन जायें। अब इस क्षेत्र पर एक मीटर चौड़ाई में आवश्यकतानुसार लम्बाई तक लकड़ी की पटि्टयॉ लगाकर मिट्टी की दो से तीन सेमी० ऊँची मेड़ बनायें और इस क्षेत्र में नर्सरी हेतु तैयार की गयी छनी हुई मिट्टी के एक सेमी० ऊँचाई तक बिछाकर समतल कर दें तथा इसके ऊपर अंकुरित बीज 800 से 1000 ग्राम प्रति वर्ग मीटर की दर से छिड़क दें। अब इसके ऊपर थोड़ी छनी हुई मिट्टी इस प्रकार डालें कि बीज ढ़क जाये। तत्पश्चात् नर्सरी को पुआल घास से ढ़क दें। 4-5 दिन तक पानी का छिड़काव करते रहें नर्सरी में किसी प्रकार के उर्वरक का प्रयोग न करें।
5.08 रोपार्इ
15 दिन की पौध रोपाई करने हेतु स्क्रेपर की सहायता से (20-50 सेमी० के टुकड़ों में) पौध इस प्रकार निकाली जाए ताकि छनी हुई मिट्टी की मोटाई तक का हिस्सा उठकर आये। इन टुकड़ों को पैडी ट्रान्सप्लान्टर की ट्रे में रख दें। मशीन में लगे हत्थे को जमीन की ओर हल्के झटके के साथ दबायें। ऐसा करने से ट्रे में रखी पौध की स्लाइस 6 पिकर काटकर 6 स्थानों पर खेत में लगा दें। फिर हत्थे को अपनी ओर खींच कर पीछे की ओर कदम बढ़ाकर मशीन को उतना खींचे जितना पौध से पौध की (सामान्यतः 10 सेमी०) रखना चाहते हैं। पुनः हत्थे को जमीन की आरे हल्के झटके से दबायें। इस प्रकार की पुनरावृत्ति करते जायें। इससे पौध की रोपाइ्र का कार्य पूर्ण होता जायेगा।
5.09 गैप फिलिंग
रोपाई के बाद जो पौधे मर जायें उनके स्थान पर दूसरे पौधों को तुरन्त लगा दें, ताकि प्रति इकाई पौधों की संख्या कम न होने पाये। अच्छी उपज के लिए प्रति वर्ग मीटर 250 से 300 बालियाँ अवश्य होनी चाहिए।
धान में फसल सुरक्षा
धान के प्रमुख कीटः | |||
(क) | असिंचित दशा में | (ख) | सिंचित दशा में |
1 | दीमक | 1 | दीमक |
2 | जड़ की सूड़ी | 2 | जड़ की सूड़ी |
3 | पत्ती लपेटक | 3 | नरई कीट |
4 | गन्धी बग | 4 | पत्ती लपेटक |
5 | सैनिक कीट | 5 | हिस्पा |
6 | बंका कीट | ||
7 | तना बेधक | ||
8 | हरा फुदका | ||
9 | भूरा फुदका | ||
10 | सफेद पीठ वाला फुदका | ||
11 | गन्धी बग | ||
12 | सैनिक कीट |
- दीमकः यह एक सामाजिक कीट है तथा कालोनी बनाकर रहते हैं। यह कालोनी में लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक, 2-3 प्रतिशत सैनिक, एक रानी व एक राजा होते हैं। श्रमिक पीलापन लिये हुए सफेद रंग के पंखहीन होते है जो उग रहे बीज, पौधों की जड़ों को खाकर क्षति पहुँचाते हैं।
- जड़ की सूड़ीः इस कीट की गिडार उबले हुए चावल के समान सफेद रंग की होती है। सूड़ियॉ जड़ के मध्य में रहकर हानि पहुँचाती है जिसके फलस्वरूप पौधे पीले पड़ जाते हैं।
- नरई कीट (गाल मिज): इस कीट की सूड़ी गोभ के अन्दर मुख्य तने को प्रभावित कर प्याज के तने के आकार की रचना बना देती है, जिसे सिल्वर शूट या ओनियन शूट कहते हैं। ऐसे ग्रसित पौधों में बाली नहीं बनती है।
- पत्ती लपेटक कीटः इस कीट की सूड़ियॉ प्रारम्भ में पीले रंग की तथा बाद में हरे रंग की हो जाती हैं, जो पत्तियों को लम्बाई में मोड़कर अन्दर से उसके हरे भाग को खुरच कर खाती हैं।
- हिस्पाः इस कीट के गिडार पत्तियों में सुरंग बनाकर हरे भाग को खाते हैं, जिससे पत्तियों पर फफोले जैसी आकृति बन जाती है।प्रौढ़ कीट पत्तियों के हरे भाग को खुरच कर खाते हैं।
- बंका कीटः इस कीट की सूड़ियॉ पत्तियों को अपने शरीर के बराबर काटकर खोल बना लेती हैं तथा उसी के अन्दर रहकर दूसरे पत्तियों से चिपककर उसके हरे भाग को खुरचकर खाती हैं।
- तना बेधकः इस कीट की मादा पत्तियों पर समूह में अंडा देती है। अंडों से सूड़ियां निकलकर तनों में घुसकर मुख्य सूट को क्षति पहुँचाती हैं, जिससे बढ़वार की स्थिति में मृतगोभ तथा बालियां आने पर सफेद बाली दिखाई देती हैं।
- हरा फुदकाः इस कीट के प्रौढ़ हरे रंग के होते हैं तथा इनके ऊपरी पंखों के दोनों किनारों पर काले बिन्दु पाये जाते हैं। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों से रस चूसकर हानि पहुँचाते हैं, जिससे प्रसित पत्तियां पहले पीली व बाद में कत्थई रंग की होकर नोक से नीचे की तरफ सूखने लगती हैं।
- भूरा फुदकाः इस कीट के प्रौढ भूरे रंग के पंखयुक्त तथा शिशु पंखहीन भूरे रंग के होते हैं। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनो ही पत्तियों एवं किल्लों के मध्य रस चूस कर छति पहॅुचाते हैं, जिससे प्रकोप के प्रारम्भ में गोलाई में पौधे काले होकर सूखने लगते हैं, जिसे ‘हापर बर्न’ भी कहते हैं।
- सफेद पीठ वाला फुदकाः इस कीट के प्रौढ़ कालापन लिये हुए भूरे रंग के तथा पीले शरीर वाले होते हैं। इनके पंखों के जोड़कर सफेद पट्टी होती है। शिशु सफेद रंग के पंखहीन होते हैं तथा इनके उदर पर सफेद एवं काले धब्बे पाये जाते हैं। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनो ही पत्तियों एवं किल्लों के मध्य रस चूसते हैं, जिससे पौधे पीले पड़कर सूख जाते हैं।
- गन्धी बगः इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ लम्बी टांगो वाले भूरे रंग के विशेष गन्ध वाले होते हैं, जो बालियों की दुग्धावस्था में दानों में बन रहे दूध को चूसकर क्षति पहूँचाते हैं। प्रभावित दानों में चावल नहीं बनते हैं।
- सैनिक कीटः इस कीट की सूड़ियाँ भूरे रंग की होती हैं, जो दिन के समय किल्लों के मध्य अथवा भूमि की दरारों में छिपी रहती हैं। सूड़ियाँ शाम को किल्लों अथवा दरारों से निकलकर पौधों पर चढ़ जाती हैं तथा बालियों को छोटे–छोटे टुकड़ों में काटकर नीचे गिरा देती हैं।
आर्थिक क्षति स्तर | |||
क्र०सं० | कीट का नाम | फसल की अवस्था | आर्थिक क्षति स्तर |
1 | जड़ की सूड़ी | वानस्पतिक अवस्था | 5 प्रतिशत प्रकोपित पौधे |
2 | नरई कीट | वानस्पतिक अवस्था | 5 प्रतिशत सिल्वर सूट |
3 | पत्ती लपेटक | वानस्पतिक अवस्था | 2 ताजी प्रकोपित पत्ती प्रति पुंज |
4 | हिस्पा | वानस्पतिक अवस्था | 2 प्रकोपित पत्ती या 2 प्रौढ़ प्रति पुंज |
5 | बंका कीट | वानस्पतिक अवस्था | 2 ताजी प्रकोपित पत्ती प्रति पुंज |
6 | तना बेधक | बाली अवस्था | 5 प्रतिशत मृत गोभ प्रति वर्ग मी० |
7 | हरा फुदका | वानस्पतिक एवं बाली अवस्था | 1-2 कीट प्रति वर्ग मी० अथवा 10-20 कीट प्रति पुंज |
8 | भूरा फुदका | वानस्पतिक एवं बाली अवस्था | 15-20 कीट प्रति पुंज |
9 | सफेद पीठ वाला फुदका | वानस्पतिक एवं बाली अवस्था | 15-20 कीट प्रति पुंज |
10 | गन्ध बग | बाली की दुग्धावस्था | 1-2 कीट प्रति पुंज |
11 | सैनिक कीट | बाली की परिपक्वता की अवस्था | 4-5 सूड़ी प्रति वर्ग मी० |
नियंत्रण के उपाय
खेत एवं मेंड़ों को घासमुक्त एवं मेड़ों की छटाई करना चाहिए।
समय से रोपाई करना चाहिए।
फसल की साप्ताहिक निगरानी करना चाहिए।
कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं के संरक्षण हेतु शत्रु कीटों के अण्डों को इकट्ठा कर बम्बू केज-कम-परचर में डालना चाहिए।
दीमक बाहुल्य क्षेत्र में कच्चे गोबर एवं हरी खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए।
उर्वरकों की संतुलित मात्रा का ही प्रयोग करना चाहिए।
जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
भूरा फुदका एवं सैनिक कीट बाहुल्य क्षेत्रों में 20 पंक्तियों के बाद एक पंक्ति छोड़कर रोपाई करना चाहिए।
अच्छे जल निकास वाले खेत के दोनों सिरों पर रस्सी पकड़ कर पौधों के ऊपर से तेजी से गुजारने से बंका कीट की सूड़ियॉ पानी में गिर जाती हैं, जो खेत से पानी निकालने पर पानी के साथ बह जाती हैं।
तना बेधक कीट के पूर्वानुमान एवं नियंत्रण हेतु 5 फेरोमोन ट्रैप प्रति हे० प्रयोग करना चाहिए।
नीम की खली 10 कु०प्रति हे० की दर से बुवाई से पूर्व खेत में मिलाने से दीमक के प्रकोप में धीरे-धीरे कमी आती है।
ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15 प्रतिशत बायोपेस्टीसाइड (जैव कीटनाशी) की 2.5 किग्रा० प्रति हे० 60-75 किग्रा० गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से दीमक सहित भूमि जनित कीटों का नियंत्रण हो जाता है।
यदि कीट का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर पार कर गया हो तो निम्नलिखित कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए।
- दीमक एवं जड़ की सूड़ी के नियंत्रण हेतु क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० 2.5 ली०प्रति हे० की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए। जड़ की सूड़ी के नियंत्रण के लिए फोरेट 10 जी 10 कि०ग्रा० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में बुरकाव भी किया जा सकता है।
- नरई कीट के नियंत्रण के लिए निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० बुरकाव/500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
- कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 कि०ग्रा० प्रति हे० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में।
- फिप्रोनिल 0.3 जी 20 कि०ग्रा० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में।
- क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० 1.25 लीटर।
- हरा, भूरा एवं सफेद पीठ वाला फुदका के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० बुरकाव/500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
- एसिटामिप्रिट 20 प्रतिशत एस०पी० 50-60 ग्राम/हे० 500-600 ली० पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 कि०ग्रा० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में।
- फिप्रोनिल 0.3 जी 20 कि०ग्रा० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में।
- इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस०एल० 125 मि०ली०।
- मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस०एल० 750 मि०ली०।
- फास्फामिडान 40 प्रतिशत एस०एल० 875 मि०ली०।
- थायामेथोक्सैम 25 प्रतिशत डब्ल्यू०जी० 100 ग्राम।
- डाईक्लोरोवास 76 प्रतिशत ई०सी० 500 मि०ली०।
- क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० 1.50 लीटर।
- क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई०सी० 1.50 लीटर।
- एजाडिरेक्टिन 0.15 प्रतिशत ई०सी० 2.50 लीटर।
- तना बेधक, पत्ती लपेटक, बंका कीट एवं हिस्सा कीट के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० बुरकाव/500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
- बाईफेन्थ्रिन 10 प्रतिशत ई०सी० 500 मिली०/हे० 500 ली पानी में घोलकर छिड़काव करें।
- कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 कि०ग्रा० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में।
- कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी 18 कि०ग्रा० 3-5 सेमी० स्थिर पानी में।
- क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई०सी० 1.50 लीटर।
- क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई०सी० 1.50 लीटर।
- ट्राएजोफास 40 प्रतिशत ई०सी० 1.25 लीटर।
- मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस०एल० 1.25 लीटर।
- गन्धी बग एवं सैनिक कीट के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० बुरकाव करना चाहिए।
- मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत धूल 20-25 कि०ग्रा०।
- मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल 20-25 कि०ग्रा०।
- फेनवैलरेट 0.04 प्रतिशत धूल 20-25 कि०ग्रा०।
- गन्धी बग के नियंत्रण हेतु एजाडिरेक्टिन 0.15 प्रतिशत ई०सी० की 2.50 लीटर मात्रा प्रति हे० 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना लाभप्रद होता है।
प्रमुख रोग
क्र०सं० | रोग | क्र०सं० | रोग |
1 | 1. सफेदा रोग | 5 | भूरा धब्बा |
2 | 2. खैरा रोग | 6 | जीवाणु झुलसा |
3 | 3. शीथ ब्लाइट | 7 | जीवाणु धारी |
4 | 4. झोंका रोग | 8 | मिथ्य कण्डुआ |
- सफेदा रोगः यह रोग लौह तत्व की कमी के कारण नर्सरी में अधिक लगता है। नई पत्ती कागज के समान सफेद रंग की निकलती है।
- खैरा रोगः यह रोग जिंक की कमी के कारण होता है। इस रोग में पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं, जिस पर बाद में कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं।
- शीथ ब्लाइटः इस रोग में पत्र कंचुल (शीथ) पर अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं, जिसका किनारा गहरा भूरा तथा मध्य भाग हल्के रंग का होता है।
- झोंका रोगः इस रोग में पत्तियों पर आंख की आकृति के धब्बे बनते हैं, जो मध्य में राख के रंग के तथा किनारे गहरे कत्थई रंग के होते हैं। पत्तियों के अतिरिक्त बालियों, डण्ठलों, पुष्प शाखाओं एवं गांठों पर काले भूरे धब्बे बनते हैं।
- भूरा धब्बाः इस रोग में पत्तियों पर गहरे कत्थई रंग के गोल अथवा अण्डाकार धब्बे बन जाते हैं। इन धब्बों के चारों तरफ पीला घेरा बन जाता है तथा मध्य भाग पीलापन लिये हुए कत्थई रंग का होता है।
- जीवाणु झुलसाः इस रोग में पत्तियाँ नोंक अथवा किनारे से एकदम सूखने लगती हैं। सूखे हुए किनारे अनियमित एवं टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं।
- जीवाणु धारीः इस रोग में पत्तियों पर नसों के बीच कत्थई रंग की लम्बी-लम्बी धारियॉ बन जाती हैं।
- मिथ्या कण्डुआः इस रोग में बालियों के कुछ दाने पीले रंग के पाउडर में बदल जाते हैं, जो बाद में काले हो जाते हैं।
नियंत्रण के उपाय
1. बीज उपचार
- बीज उपचारः जीवाणु झुलसा एवं जीवाणु धारी रोग के नियंत्रण हेतु स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट 90 प्रतिशत+टेट्रासाइक्लिन हाइड्रोक्लोराइड 10 प्रतिशत की 4.0 ग्राम मात्रा को प्रति 25 किग्रा० बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिये।
- झोंका रोग के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्लू०एस० की 2.50 ग्राम मात्रा अथवा कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० की 2.0 ग्राम मात्रा को प्रति किग्रा० बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिए।
- शीथ ब्लाइट रोग के नियंत्रण हेतु कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० की 2.0 ग्राम मात्रा को प्रति किग्रा० बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिए।
- भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्लू०एस० की 2.50 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा की 4.0 ग्राम मात्रा को प्रति किग्रा० बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिए।
- मिथ्य कण्डुआ रोग के नियंत्रण हेतु कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० की 2.0 ग्राम मात्रा को प्रति किग्रा० बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिए।
2. भूमि उपचार
- खैरा रोगः के नियंत्रण हेतु जिंक सल्फेट 20-25 किग्रा० प्रति हे० की दर से बुवाई/रोपाई से पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से खैरा रोग का प्रकोप नहीं होता है।
- जीवाणु झुलसा/जीवाणुधारी रोगः के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) स्यूडोमोनास फ्लोरसेन्स 0.5 प्रतिशत डब्लू०पी० की 2.50 किग्रा० प्रति हे० की दर से 10-20 किग्रा० बारीक बालू में मिलाकर बुवाई/रोपाई से पूर्व उर्वरकों की तरह से बुरकाव करना लाभप्रद होता है। उक्त बायो पेस्टीसाइड्स की 2.50 किग्रा० मात्रा को प्रति हे० 100 किग्रा० गोबर की खाद में मिलाकर लगभग 5 दिन रखने के उपरान्त बुवाई से पूर्व भूमि में मिलाया जा सकता है।
- भूमि जनित रोगों: के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्रीइकोडरमा बिरडी 1 प्रतिशत अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत की 2.5 किग्रा० प्रति हे० 60-75 किग्रा० सड़ी हुए गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से शीथ ब्लाइट, मिथ कण्डुआ आदि रोगों के प्रबन्धन में सहायक होता है।
3.पर्णीय उपचार
- सफेदा रोगः के नियंत्रण हेतु 5 किग्रा० फेरस सल्फेट को 20 किग्रा० यूरिया अथवा 2.50 किग्रा० बुझे हुए चूने को प्रति हे० लगभग 1000 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
- खैरा रोगः के नियंत्रण हेतु 5 किग्रा० जिंक सल्फेट को 20 किग्रा० यूरिया अथवा 2.50 किग्रा० बुझे हुए चूने को प्रति हे० लगभग 1000 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
- शीथ ब्लाइटः के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० 500-750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
ट्राइकोडर्मा विरडी 1 प्रतिशत डब्लू०पी० 5-10 ग्राम प्रति ली० पानी (2.5 कि०ग्रा०) 500 ली० पानी में घोलकर पर्णीय छिड़काव। | ||
1 | कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० | 500 ग्राम |
2 | थायोफिनेट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्लू०पी० | 1.0 किग्रा० |
3 | हेक्साकोनाजोल 5.0 प्रतिशत ई०सी० | 1.0 ली० |
4 | प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत र्इ०सी० | 500 मिली० |
5 | कार्बेण्डाजिम 12 प्रतिशत+मैंकोजेब 63 प्रतिशत डब्लू०पी० | 750 ग्राम |
झोंका रोगः के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० 500-750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। | ||
1 | कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० | 500 ग्राम |
2 | एडीफेनफास 50 प्रतिशत ई०सी० | 500 मिली० |
3 | हेक्साकोनाजोल 5.0 प्रतिशत ई०सी० | 1.0 ली० |
4 | मैंकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू०पी० | 2.0 किग्रा० |
5 | जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू०पी० | 2.0 किग्रा० |
6 | कार्बेण्डाजिम 12 प्रतिशत+मैंकोजेब 63 प्रतिशत डब्लू०पी० | 750 ग्राम |
7 | आइसोप्रोथपलीन 40 प्रतिशत र्इ०सी० | 750 मिली प्रति हे० |
8 | कासूगामाइसिन 3 प्रतिशत एम०एल० | 1.15 ली० प्रति हे० |
भूरा धब्बाः के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० 500-750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। | ||
1 | एडीफेनफास 50 प्रतिशत ई०सी० | 500 मिली० |
2 | मैंकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू०पी० | 2.0 किग्रा० |
3 | जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू०पी० | 2.0 किग्रा० |
4 | जिरम 80 प्रतिशत डब्लू०पी० | 2.0 किग्रा० |
5 | थायोफिनेट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्लू०पी० | 1.0 किग्रा० |
जीवाणु झुलसा एवं जीवाणु धारीः के नियंत्रण हेतु 15 ग्राम स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट 90 प्रतिशत+टेट्रासाक्लिन हाइड्रोक्लोराइड 10 प्रतिशत को 500 ग्राम कापर आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू०पी० के साथ मिलाकर प्रति हे० 500-750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
मिथ्य कण्डुआः के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायन में से किसी एक रसायन को प्रति हे० 500-750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
1. | कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू०पी० | 500 ग्राम |
2. | कापर हाइड्राक्साइड 77 प्रतिशत डब्लू०पी० | 2.0 किग्रा० |
प्रमुख खरपतवार
(क) जल भराव की दशा में: होरा घास, बुलरस, छतरीदार मोथा, गन्ध वाला मोथा, पानी की बरसीम आदि।
(ख) सिंचित दशा में:
1. सकरी पत्ती- सांवा, सांवकी, बूटी, मकरा, कांजी, बिलुआ कंजा आदि।
2. चौड़ी पत्ती- मिर्च बूटी, फूल बूटी, पान पत्ती, बोन झलोकिया, बमभोली, घारिला, दादमारी, साथिया, कुसल आदि।
नियंत्रण के उपाय
शस्य क्रियाओं द्वाराः शस्य क्रियाओं द्वारा खरपतवार नियंत्रण हेतु गर्मी में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई, फसल चक्र अपनाना, हरी खाद का प्रयोग, पडलिंग आदि करना चाहिए।
यॉत्रिक विधिः इसके अन्तर्गत खुरपी आदि से निराई-गुडाई कर भी खरपतवार नियंत्रित किया जा सकता है।
रासायनिक विधिः इसके अन्तर्गत विभिन्न खरपतवारनाशी रसायनों को फसल की बुवाई/रोपाई के पश्चात संस्तुत मात्रा में प्रयोग किया जाता है, जो तुलनात्मक दृष्टि से अल्पव्ययी होने के कारण अधिक लाभकारी व ग्राह्य है।
- 1. नर्सरी में खरपतवार नियंत्रण हेतु प्रेटिलाक्लोर 30.7 प्रतिशत ई०सी० 500 मिली० प्रति एकड़ की दर से 5-7 किग्रा० बालू में मिला कर पर्याप्त नमी की स्थिति में नर्सरी डालने के 2-3 दिन के अन्दर प्रयोग करना चाहिए।
- 2. सीधी बुवाई की स्थिति में प्रेटिलाक्लोर 30.7 प्रतिशत ई०सी० 1.25 लीटर बुवाई के 2-3 दिन के अन्दर अथवा बिसपाइरीबैक सोडियम 10 प्रतिशत एस०सी० 0.20 लीटर बुवाई के 15-20 दिन बाद प्रति हे० की दर से नमी की स्थिति में लगभग 500 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नॉजिल से छिड़काव करना चाहिए।
- 3. रोपाई की स्थिति में- सकरी एवं चौड़ी पत्ती दोनों प्रकार के खरपतवारों के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को प्रति हे० लगभग 500 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नॉजिल से 2 इंच भरे पानी में रोपार्इ के 3-5 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।
- ।
- 4. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को प्रति हे० लगभग 500 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नॉजिल से बुवाई के 25-30 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए-
प्रमुख चूहेः
धान की फसल चूहों द्वारा भी प्रभावित होती है, जिनमें खेत का चूहा (फिल्ड रैट), मुलायम बालों वाला खेत का चूहा (साफ्ट फर्ड फील्ड रैट) एवं खेत का चूहा (फील्ड माउस) आदि मुख्य चूहे की हानिकारक प्रजातियॉ हैं।
चूहों के नियंत्रण के उपायः
1- इनके नियंत्रण हेतु खेतों की निगरानी एवं जिंकफास्फाइड 80 प्रतिशत का प्रयोग करना चाहिए तथा नियंत्रण का साप्ताहिक कार्यक्रम निम्न प्रकार सामूहिक रूप से किया जाय तो अधिक सफलता मिलती है।
पहला दिन | खेत की निगरानी करें तथा जितने चूहे के बिल हो उसे बन्द करते हुए पहचान हेतु लकड़ी के डन्डे गाड़ दें। |
दूसरा दिन- | खेत में जाकर बिल की निगरानी करें जो बिल बन्द हो वहॉ से गड़े हुए डन्डे हटा दें। जहॉ पर बिल खुल गये हों वहॉ पर डन्डे गड़े रहने दें। खुले बिल में एक ग्राम सरसों का तेल एवं 48 ग्राम भुने हुए दाने में जहर मिला कर रखें। |
तीसरा दिन | बिल की पुनःनिगरानी करें तथा जहर मिला हुआ चारा पुनःबिल में रखें। |
चौथा दिन | जिंक फास्फाइड 80 प्रतिशत की 1.0 ग्राम मात्रा को 1.0 ग्राम सरसों के तेल एवं 48 ग्राम भुने हुए दाने में बनाये गये जहरीले चारे का प्रयोग करना चाहिए। |
पॉचवा दिन | बिल की निगरानी करें तथा मरे हुए चूहे को जमीन में खोद कर दबा दें। |
छठा दिन | बिल को पुनः बन्द कर दें तथा अगले दिन यदि बिल खुल जाये तो इस साप्ताहिक कार्यक्रम को पुनः अपनायें। |
2- ब्रोमडियोलोन 0.005 प्रतिशत के बने बनाये चोर की 10 ग्राम मात्रा प्रत्येक जिंदा बिल में रखना चाहिए। इस दवा को चूहा 3-4 बार खाने के बाद मरता है।
धान की फसल में माहवार महत्वपूर्ण कार्य बिन्दु
मई
- पंत-4, सरजू-52, आईआर-36, नरेन्द्र 359 आदि की नर्सरी डालें।
- धान के बीज शोधन हेतु 4 ग्राम स्ट्रेप्टो साइक्लीन रसायन को 45 ली० पानी में घोलकर 25 किग्रा० बीज को 12 घन्टे पानी में भिगोकर तथा सुखाकर नर्सरी में बोना।
जून
- धान की नर्सरी डालना। सुगन्धित प्रजातियां शीघ्र पकने वाली।
- नर्सरी में खैरा रोग लगने पर जिंक सल्फेट तथा यूरिया का छिड़काव सफेदा रोग हेतु फेरस सल्फेट तथा यूरिया का छिड़काव।
- धान की रोपाई।
- रोपाई के समय संस्तुत उर्वरक का प्रयोग एवं रोपाई के एक सप्ताह के अंदर ब्यूटाक्लोर से खरपतवार नियंत्रण।
जुलाई
- धान की रोपाई प्रत्येक वर्गमीटर में 50 हिल तथा प्रत्येक हिल पर 2-3 पौधे लगाना एवं ब्यूटाक्लोर से खरपतवार नियंत्रण।
- ऊसर क्षेत्र हेतु ऊसर धान-1, ऊसर धान-2, जया एवं साकेत-4 की रोपाई 35-40 दिन की पौध लगाना। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सेमी० व पौध से पौध की दूरी 10 सेमी० एवं एक स्थान पर 4-5 पौध लगाना।
अगस्त
- धान में खैरा रोग नियंत्रण हेतु 5 किग्रा०जिंक सल्फेट तथा 20 किग्रा० यूरिया अथवा 2.5 किग्रा० बुझा चूना को 800 लीटर पानी।
- धान में फुदका की रोकथाम हेतु मोनोक्रोटोफास 30 ई०सी० (750 मी०ली०) 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे० छिड़काव।
सितम्बर
- धान में फूल खिलने पर सिंचाई।
- धान में दुग्धावस्था में सिंचाई।
- धान में भूरा धब्बा एवं झौका रोग की रोकथाम हेतु जिंक मैंगनीज कार्बामेट अथवा जीरम 80 के 2 कि०ग्रा अथवा जीरम 27 प्रतिशत के 3 ली० अथवा कार्बेडान्जिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोलकर तैयार कर छिड़काव करना चाहिए।
- धान में पत्तियों एवं पौधों के फुदकों के नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफास 1 लीटर का 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे० छिड़काव।
- धान में फ्लेग लीफ अवस्था पर नत्रजन की टाप ड्रेसिंग।
गन्धी कीट नियंत्रण हेतु 5 प्रतिशत मैलाथियान चूर्ण के 25 से 30किग्रा० प्रति हे० का बुरकाव करें।
अक्टूबर
- धान में सैनिक कीट नियंत्रण हेतु मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण अथवा फेन्थोएट का 2 प्रतिशत चूर्ण 25-30 किग्रा० प्रति हे० बुरकाव करें।
- धान में दुग्धावस्था में सिंचाई।
- धान में भूरा धब्बा एवं झौका रोग की रोकथाम हेतु जिंक मैंगनीज कार्बामेट अथवा जीरम 80 के 2 कि०ग्रा अथवा जीरम 27 प्रतिशत के 3 ली० अथवा कार्बेडान्जिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोलकर तैयार कर छिड़काव करना चाहिए।
- धान में पत्तियों एवं पौधों के फुदकों के नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफास 1 लीटर का 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे० छिड़काव।
- धान में फ्लेग लीफ अवस्था पर नत्रजन की टाप ड्रेसिंग।
गन्धी कीट नियंत्रण हेतु 5 प्रतिशत मैलाथियान चूर्ण के 25 से 30किग्रा० प्रति हे० का बुरकाव करें।
स्रोत : कृषि विभाग,उत्तर प्रदेश