अनेक गांवों के चरागाहों की जमीन पर तमाम प्रभावशाली लोगों या स्वयं पंचायतों ने कब्जा कर लिया। सरकार की सिंचाई योजनाओं के तहत भी तमाम चरागाह खेती की जमीन में बदल दिए गए। नहरों आदि के निकलने और मिट्टी खनन या अन्य कुछ बिना सोचे-समझे लागू की गई योजनाओं ने भी चरागाहों को लीला है। मुश्किल यह है कि भारत में चरागाहों के रखरखाव की कोई ठोस योजनाएं नहीं हैं।
साधारण भाषा में चरागाह भूमि के किसी ऐसे खंड को कहते हैं जहां कुछ पेड़-पौधों के साथ खूब घास उगी हो, जिन्हें खाकर पशु अपना पेट भर सकें। इन चरागाहों का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जिन लोगों का गांव से नाता रहा होगा उनकी आंखों में वे दृश्य अवश्य सुरक्षित होंगे जिनमें दोपहर ढलते ही सब अपने-अपने पशुओं को खूंटे से खोलकर जंगल की ओर ले जाया करते थे। कोई एक आदमी हाथ में लाठी लेकर सारे पशुओं को चरागाह की तरफ हांकता। वैसे हांकने की आवश्यकता भी कुछ खास नहीं पड़ती नहीं थी, पशु रोज के अभ्यास के कारण जानते ही थे कि कहां जाना है और यह भी जानते थे कि वहां खाने को ताजी-ताजी घास मिलने वाली है। खुली हवा और ताजी घास उनके शारीरिक-मानसिक पोषण और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सक्षम होती थी। हर गांव का अपना चरागाह जरूर होता था। बूढ़े पशुओं से लेकर नन्हे बछड़े-बछिया, कटरे-कटिया सबको खूंटों से खोलकर, एकत्र कर जंगल की राह ले जाया जाता। खूंटों से खुलने के बाद वे एक-दूसरे के साथ बेतरतीब हुलसते हुए चरागाह की तरफ चले जाते और घंटों चरने के बाद जब गोधू्लि बेला में गांव की ओर लौट रहे होते तो उत्सव-सा लगता था। पेट भर कर लौटे पशुओं की आंखों में झलकती आश्वस्ति उनके स्वामी को भी आश्वस्त करती और तृप्त हुए पशु बैठ कर घंटों जुगाली करते। गाय-भैंसें भरपूर दूध देतीं, बैल और भैंसे जी तोड़ मेहनत करते और नन्हे शिशु अपने बचपन का उत्सव मनाते। पर अब स्थिति बदल गई है। अब तो जैसे प्रकृति की हर धरोहर बस मनुष्य जाति को चाहिए! भूमि, जल या थल चाहे वह कुछ भी क्यों न हो!
अनेक गांवों के चरागाहों की जमीन पर तमाम प्रभावशाली लोगों या स्वयं पंचायतों ने कब्जा कर लिया। सरकार की सिंचाई योजनाओं के तहत भी तमाम चरागाह खेती की जमीन में बदल दिए गए। नहरों आदि के निकलने और मिट्टी खनन या अन्य कुछ बिना सोचे-समझे लागू की गई योजनाओं ने भी चरागाहों को लीला है। मुश्किल यह है कि भारत में चरागाहों के रखरखाव की कोई ठोस योजनाएं नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश के जिन गांवों से मेरा नाता है उनमें अब कोई पशुओं को चराने नहीं ले जाता। कमोबेश यही हाल सब जगह है। क्या संकुचित से एक ही स्थान पर बंधे रह कर पशुओं को अवसाद नहीं होता होगा, उन्हें उदासी नहीं घेरती होगी? अवश्य ही, पशु भी अवसाद और उदासी से गुजरते हैं पर किसी निशब्द के भावों को समझने का समय इस भागदौड़ और भीड़ भरे संसार में है ही किसके पास? तो क्या मनुष्य की संवेदना अपने स्तर से गिरती ही जा रही है चाहे वे निर्दोष पालतू पशु ही क्यों न हों जो हर तरह से मनुष्य को लाभ ही दे रहे होते हैं? अब उन्हीं के मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य और प्रसन्नता का ध्यान मनुष्य नहीं रख रहा।
बरसों पहले पशुओं को नहलाने के लिए गांव के जोहड़ या पोखर में ले जाया जाता था। वे घंटों वहां पानी में घुसे रहते थे, फिर चलकर वापस आते थे। उनका शारीरिक व्यायाम होता था और भरपूर पानी पाकर खुद को प्रफुल्लित अनुभव करते थे। भैंस प्रजाति को तो गर्मी बहुत अधिक लगती है इसीलिए वे जोहड़ में घंटों पड़ी रहती थीं। अब लगभग सभी जोहड़-पोखरों को भर दिया गया, उनका अस्तित्व खत्म कर उनकी जमीन भी भराई करा कर या तो खेती में ले ली गई या रिहायशी प्रयोग में। अब अधिकतर लोगों ने सबमर्सिबल पंप लगवा रखे हैं, पंप चलाकर वहीं खड़े-खड़े जानवरों को नहला देते हैं। कीचड़ न हो इसके लिए अधिकांश लोगों ने र्इंटें बिछवा रखी हैं। निश्चय ही उन पक्की र्इंटों पर पशुओं के खुर इतने आराम से तो नहीं ही रहते होंगे जितने कच्ची मिट्टी पर। पशुओं की चहलकदमी न होने के अलावा भी इस व्यवस्था का एक और दुष्परिणाम पानी का अंधाधुंध दोहन है। जोहड़ों द्वारा धरती के भीतर तो अब पानी जा ही नहीं रहा, उलटे निकाला इस कदर जा रहा है कि भूजल स्तर लगातार गिर रहा है।
एक ही स्थान पर खड़े-खड़े पशुओं के पैर भी अकड़ जाते होंगे। उनकी स्थिति तो ठीक वैसी ही है जैसे खुले वातावरण में रहने वाले किसी ग्रामीण को शहर ले जाकर किसी बिल्डिंग के दसवें माले पर रख दिया जाए। उसे नीचे उतरने की मनाही हो या कभी-कभार ही वह लिफ्ट से उतर कर सोसाइटी के छोटे से पार्क में ही जाकर थोड़ा-बहुत टहल कर आ सके। यही हो रहा है ग्रामीण पशुओं के साथ भी। वे तो किसी पार्क में जाने के लिए भी स्वतंत्र नहीं इसीलिए उनकी आंखों में उदासी भरी है। अनुभवी पशुपालक बताते हैं कि पशुओं की प्रतिरोधक क्षमता पर भी इसका विपरीत असर पड़ा है। अब उन्हें बीमारियां अधिक लगती हैं और जब लगती हैं तो पहले की तरह देसी दवाओं और घरेलू उपचारों से ठीक नहीं होतीं। पशुओं के चिकित्सक को ही बुलाना पड़ता है और तमाम ऐलोपैथिक दवाइयां देकर ही उन्हें ठीक किया जाता है। यह पशुओं के स्वामी पर भी एक अतिरिक्त बोझ है। तो क्या इस कदर अनदेखी से पशुओं की उत्पादकता पर असर नहीं पड़ता? अवश्य ही पड़ता है, जिसके कारण उन पर निर्भर लोगों का जीवन भी आर्थिक रूप से प्रभावित जरूर होता है।
ग्रामीण चरागाहों के खत्म होने के लिए ग्रामीणों के लालच को भी दोषी कहा जा सकता है। ग्रामीणों ने जोहड़ों की तरह उस जमीन को भी फसल लेने वाली जमीन में सम्मिलित कर लिया या रिहायशी इलाकों में तब्दील कर लिया। इस अतिक्रमण को जनसंख्या वृद्धि से जोड़कर भी देखा जा सकता है, जिसकी वजह से अधिक संसाधनों की आवश्यकता का यह दुष्परिणाम हुआ। कई जगह तो खुद पंचायतों ने ही चरागाहों की जमीन अपने कब्जे में ले ली।
भारत सरकार ने झांसी में 1962 में चारा अनुसंधान संस्थान की स्थापना की थी। 1966 में इसका प्रशासनिक नियंत्रण भारतीय अनुसंधान परिषद दिल्ली को सौंपा गया। इसमें देश-विदेश की सहायता से तमाम परियोजनाएं लागू की जाती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य चारे के लिए हरी फसलों की उन्नत किस्मों के विकास, चारा फसलों और चरागाहों के विकास, उत्पादन एवं उपभोग पर आधारभूत तथा योजनाबद्ध अनुसंधान करना है। उन अनुसंधान कार्यों का समन्वय एवं संकलन, तमाम विशेषज्ञों से सलाह कराना और पशुपालन व्यवसाय के लिए मानव संसाधन का विकास एवं तकनीकी स्थानांतरण आदि। इस सबके अतिरिक्त इस संस्था को छोटे स्तर के चरागाहों के विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। भारत में चारा खाने वाले पशुओं की संख्या विश्व के पशुओं की 30.44 प्रतिशत है जो कि दुनिया में सबसे अधिक है। 23.19 प्रतिशत के साथ ब्राजील दूसरे नंबर पर है, तीसरे नंबर पर चीन है सिर्फ 9.67 प्रतिशत के साथ, जो भारत से बहुत पीछे है। चरागाहों के विस्तार में भारत दो अरब हेक्टेयर के साथ विश्व में तीसरे स्थान पर है। पशुधन के धनी इस देश में पशुओं की उपेक्षा या उनके लिए चरागाहों की कमी अच्छा संकेत नहीं कही जा सकती ।
content from net