कैसे करें आम की खेती

परिचय
भारतवर्ष का सर्वसुलभ एवं लगभग हर प्रान्त में आसानी से उगाया जा सकने वाला फल आम हैं। इसके स्वाद, सुवास एवं रंग-रूप के कारण इसे फलों का राजा कहा जाता हैं। उत्पादन एवं क्षेत्रफल दोनों की दृष्टि से आम भारत का प्रमुख फल है। विश्व के कुल आम उत्पादन का लगभग 43.4 प्रतिशत भाग भारत में उत्पन्न होता हैं। व्यावसायिक स्तर पर आम की खेती प्रमुख रूप से उत्तरप्रदेष, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेष, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश एवं गुजरात में की जाती हैं। आम के पके हुये फल स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक होते हैं।

ताजे फल के उपयोग के अतिरिक्त आम के फलों से अनेक परिरक्षित पदार्थ बनाये जाते हैं। कच्चे फलों के अचार, अमचू आदि बनाये जाते हैं। जबकि पके फलों से स्क्वैश, जूस, शर्बत, जैम, अमावट आदि बनाये जाते हैं। अधिकतर आम के बाग अवैज्ञानिक तरीके से लगाये गये हैं अतः इनकी उत्पादकता अत्यंत कम है। जगह का चुनाव भूमि की तैयारी, अच्छी किस्म के स्वस्थ्य पौधों की उपलब्धता, खाद एवं पानी की मात्रा, समस्यायें (रोग एवं कीट) एवं उनका निदान आदि अगर वैज्ञानिक विधि से एवं योजनाबद्ध प्रकार से किया जाय तो निश्चित ही आम की बागवानी द्वारा किसान अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

भूमि
आम की फसल की बागवानी के लिये अच्छी जलधारण क्षमता वाली गहरी, बलुई, दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। गहरी काली मिट्टी इसके लिये अच्छी नही मानी जाती। भूमि का पी.एच.मान 5.5 से 7.5 तक उपयुक्त हैं। भूमि की गहराई कम से कम 1 से 1.5 मीटर होनी चाहिये।

जलवायु
आम उष्ण जलवायु वाला पौधा हैं। यह सरतापूर्वक समुद्र सतह से 1100 मी. तक की उंचाई पर लगाया जा सकता है। आम के लिये 24 से. ग्रे. 37 से.ग्रे. का तापमान अच्छा होता हैं। फूल आने के समय अधिक आद्रता, वर्षा एवं पाला आम के लिये उपयुक्त नही हैं। फल वृद्धि के समय अधिक तापक्रम फल की गुणवत्ता के लिये अच्छा होता हैं।

आम की उन्नत किस्में
आम की लगभग 1000 से अधिक किस्में उगाई जाती है किंतु व्यापारिक दृष्टिकोण से 40-50 किस्में उपयुक्त पाई गई हैं। कुछ प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं –

1 .आम्रपाली (दशहरी X नीलम)
यह एक संकर किस्म है जिसके पौधे बोने होते हैं जिसके कारण यह किस्म सघन बागवानी के लिये उपयुक्त है। इसके फल, आकार में छोटे होते है परंतु प्रतिवर्ष फलते हैं। यह देर से पकने वाली किस्म है जिसमें फल जून के अंत मे पकते हैं। सघन बागवानी में इससे 200-250 क्विं/हेक्टेयर उपज प्राप्त होती हैं।

2. मल्लिका (नीलम X दशहरी)
यह एक संकर किस्म है जिसके फल बहुत बड़े (औसत वनज 500 ग्राम) होते हैं। फल का रंग गुलाबी -पीला, गुठली पतली, गूदेदार, मीठा एवं स्वादिष्ट होता हैं। यह नियमित रूप से फलने वाली किस्म है। इस किस्म की भंडारण क्षमता अधिक होती है यह किस्म खाने एवं प्रसंस्करण हेतु उपयुक्त हैं। एक पूर्ण विकसित वृक्ष से औसतन 150-200 किलो ग्राम फल प्राप्त होते हैं।

3. दशहरी
इस किस्म का उत्पत्ति स्थान लखनऊ है एवं यह उत्तर भारत की प्रमुख एवं स्वाद हेतु लोकप्रिय किस्म हैं। यह मध्य जून से जुलाई तक पकने वाली किस्म हैं। वृक्ष मध्यम ऊँचाई का फैलने वाले तथा शीर्ष गोलाकार होता है। फल मध्यम आकार के भार 125-250 ग्राम, रंग पीला, छिल्का पतला, रेशा रहित गूदा एवं गुठली छोटी होती हैं। फल अच्छी भंडारण क्षमता वाले होते हैं।

4.लंगड़ा
जाती है। इस विधि में मूलवंत पर जमीन से 20 से.मी. की ऊँचाई पर 30-40 मि.मी. का एक तिरछा चीरा अंदर की तरफ लगा कर मूलवृंत का टुकड़ा निकाल दें। अब इसी चीरे के बराबर की कलम सांकुर डाली पर नीचे की ओर बनायें एवं दोनों चीरों को मिलाते हुये 200 गेज वाली पालीथिन की पट्टी से अच्छी तरह से बाँध दें। मूलवंत को उपर से काट दें। इसी प्रकार 20-25 दिन में सांकुरडाली मूलवृंत से जुड़ जाये। विनियर ग्राफ्टिंग करने से पूर्व सांकुर डाली को एक सप्ताह पहले से मातृवृक्ष में ही पत्ती रहित कर दें। इस प्रकार कलमी पौधे तैयार करें।

इसकी उत्पत्ति बनारस के समीप, गाँव में हुई। यह किस्म अंतिम मई से जुलाई के अंत तक फल देती हैं। वृक्ष फैलने वाली प्रकृति के एवं शीर्ष गोलाकार होता है। फल मध्यम आकार के अण्डाकार, रंग हरा, रेशा रहित गूदा एवं छोटी गुठली होती हैं। फलों की भंडारण क्षमता कम होती हैं। इसका औसत उत्पादन 150-200 कि.ग्रा. प्रति वक्ष तक होता हैं।

5.सुन्दरजा
यह मध्यम अवधि में पकनेवाली किस्म है जिसका उत्पत्ति स्थान रीवा (म.प्र.) है। फल मध्यम आकार का वनज 200-250 ग्राम तिरछा, अण्डाकार, रंग पीला, सुगंधित एवं स्वादिष्ट होता हैं। यह कुरचना (मैंगो मालफार्मेशन) के लिये अत्याधिक संवेदनशील हैं।

6.गाजरिया
यह बैतूल (म.प्र.) की प्रमुख किस्म हैं। फल मध्यम से बड़ा, आयताकार, आधार थोड़ा चपटा, शीर्ष गोलाकार, रंग पकने पर पीला हरा, छिल्के पर सफेद धब्बे, छिल्का मध्यम से मोटा, गूदा रसदार एवं बहुत मीठा होता है। इसमें अन्नास जैसी सुगंध होती है तथा गूदा गाजर के समान होने के कारण इसे गाजरिया कहते हैं पकने का समय मध्य मई से अंतिम जून तक होता हैं।

7.दहियड़
यह भोपाल (म.प्र.) की रसदार किस्म है जिसका फल मध्यम आकार, तिरछा, अण्डाकार, शीर्ष गोलाकार चैड़ा, रंग पकने पर पीला हरा, छिलका मोटा, गूदा रसदार, मीठा, हल्का पीला रेशा रहित होता है। दही में शक्कर मिश्रित सुगंध के कारण इसे दहियड़ कहते हैं।

8.करेला
यह भोपाल (म. प्र.) की किस्म हैं, जो कि मुरब्बा बनाने के लिये उपयुक्त है। फल में करेले के जैसे उठास होने के कारण इसे करेला कहते हैं। फल मध्यम से बड़ा, गुर्दे के आकार का अण्डाकार होता है। आधार गोलापन लिये हुये तिरछा, शीर्ष गोलाकार, चोंच स्पष्ट, स्कंध गोलाकार रंग हरा, पकने पर छिल्के में सफेद धब्बे आ जाते हैं। छिल्का मोटा, गूदा मध्यम रसवाला, पीला, रेशा रहित तथा सुगंधित होता है। पकने का समय 15 जून से 15 जुलाई हैं।

9.बाॅम्बेग्रीन
जल्दी पकनेवाली किस्म है, जिसके फल मई के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार होते हैं। इस किस्म के वृक्ष अधिक शाखायुक्त एवं पत्तियाँ पतली होती हैं। फलों का आकार मध्यम, पकने पर हरे रंग से हरा पीला, फलों में गूदे की मात्रा अधिक तथा स्वाद एवं मिठास अच्छी होती हैं।

10.हिमसागर
यह जून के मध्य तक पकने वाली किस्म है। इसके पौधे ओजपूर्ण एवं मध्यम शाखीय होते हैं। फलों का रंग हरा तथा आकार अंडाकार होता हैं। इसके फल मीठे, स्वादिष्ट एवं गूदेदार होते हैं।

11.अलफैंजो
यह रत्नागिरी (महाराष्ट्र) की लोकप्रिय किस्म है। फलो का आकार मध्यम, (वनज 250 ग्राम), गूदा नरम, रेशा रहित, रंग नारंगी, स्वाद खट्टा मीठा होता है। इसमें स्पाँजी ऊतक नामक विकृति पायी जाती है। इसकी भंडारण क्षमता अच्छी होती है तथा निर्यात के लिये उपयुक्त हैं।

पौधे तैयार करने का तरीका
आम की बीजू पौधे व्यावसायिक दृष्टिकोण से बगीचे के लिये उपयुक्त नही होते हैं बीज द्वारा उगाये गये पौधों में देर से फलन होता हैं। साथ ही फल की गुणवत्ता एवं उत्पादन भी कम होता हैं। अतः आम के पौधे तैयार करने हेतु वानस्पतिक प्रवर्धन विधि, पौध की देखरेख, फल वृक्षों का पोषण सिंचाई एवंज ल ग्रहण , पूरक पौधे एवं अंतराशस्य, पुष्पन एवं फलन एवं कीट रोग, नियंत्रण हेतु उपयुक्त है। आम के पौधे भेट कलम, विनियर, स्टोन, कोमल शाखा एवं शूट टिप ग्राफ्टिंग विधि द्वारा तैयार किये जाते हैं।

मुख्य रूप से विनियर ग्राफ्टिंग प्रयोग में की जाती हैं। इस विधि में मूलवृंत पर जमीन से 20 से.मी. की ऊँचाई पर 30-40 मि.मी. का एक तिरछा चीरा अंदर की तरफ लगा कर मूलवृंत का टुकड़ा निकाल दें। अब इसी चीरे के बराबर की कलम सांकुर डाली पर नीचे की ओर बनायें एवं दोनों चीरों को मिलाते हुये 200 गेज वाली पाॅलीथिन की पट्टी से अच्छी तरह से बाँध दें। मूलवृंत को उपर से काट दें। इसी प्रकार 20-25 दिन में सांकुरडाली मूलवृंत से जुड़ जायेगी। विनियर ग्राफ्टिंग करने से पूर्व सांकुर डाली को एक सप्ताह पहले से मातृवृक्ष में ही पत्ती रहित कर दें। इस प्रकार कलमी पौधे तैयार करें।

पौध रोपण
आम के पौधों को 10 X 10 मीटर की दूरी पर लगायें। किंतु सघन बागवानी में इसे 2.5 से 4 मीटर की दूरी पर लगावें। पौधा लगाने के पूर्व खेत में रेखांकन कर पौधों का स्थान सुनिश्चित कर लें। पौधे लगाने लिये 1 X 1 X 1 मीटर आकार का गड्ढा खोदें। वर्षा प्रारंभ होने के पूर्व, जून माह में 20-30 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 2 कि.गा. नीम की खली 1 कि.ग्रा. हड्डी का चूरा अथवा सिंगल सुपर फाॅस्फेट एवं 100 ग्राम मिथाईल पैरामिथाॅन की डस्ट (10 प्रतिशत ) या 20 ग्राम थीमेट 10 जी को खेत की ऊपरी सतह की मिट्टी के साथ मिला कर गड्ढों को अच्छी तरह भर दें ।

दो -तीन बार बारिश होने के बाद जब मिट्टी दब जाये तब पूर्व चिन्हित स्थान पर खुरपी की सहायता से पौधे की पिण्डी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगायें। पौधा लगाने के बाद आस-पास की मिट्टी को अच्छी तरह दबाकर एक थाला बना दें हल्की सिंचाई करें।

पौधे की देखरेख
आम के पौधे की देखरेख उसके समुचित फलन एवं पूर्ण उत्पादन हेतु आवष्यक हैं। पौधों को लगाने के बाद पौधे की पूर्ण रूप से स्थापित होने तक, सिंचाई करें। प्रारंभिक दो तीन वर्षो तक आम के पौधों को विषेश देखरेख की आवश्यकता होती है। जाड़े में पाले से बचाव के लिये एवं गर्मी में लू से बचाने के लिये सिंचाई करें। जमीन से 80 से.मी. की उंचाई तक की शाखाओं को निकाल दें, जिससे मुख्य तने का समुचित विकास हो सके। ग्राफ्टिंग के स्थान के नीचे से कोई शाखा नही निकलनी चाहिए।

उपर की 3-4 शाखाओं को बढने दें। बड़े छत्रक वाले घने वक्षों में, न फलने वाली बीच की शाखाओ को काट दें। फलो को तोडने के बाद मंजर के साथ – साथ 2-3 से.मी. टहनियों को काट दें ताकि स्वस्थ शाखायें निकलें। अगले मौसम में अच्छा फलन होगा।

फल वृक्षो का पोषण
आम के पौधों में खाद एवं उर्वरक निम्नानुसार दें –

क्र.
वर्ष
गेबर की खाद (कि.ग्रा.)
नीम की खली (ग्रा.)
यूरिया (ग्रा.)
सिंगल सुपर फाॅस्फेट (ग्रा.)
म्यूरेट आॅफ पोटाश (ग्रा.)
1. 1 से 3 25 2 200 150 150
2. 4 से 10 40 3 900 800 600
3. 10 वर्ष बाद 75 3 2 1.5 800
उपरोक्त खाद एवं उर्वरक की मात्रा भूमि परीक्षण के पश्चात परिणाम के अनुसार परिवर्तित करें।

सिंचाई एवं जल ग्रहण
आम का पौधा जब तक फलन में नही आता तब तक पौधे की उचित बढवार हेतु सर्दी के मौसम में 12-15 दिन एवं गर्मी के मौसम में 8-10 दिनों के अंतराल से सिंचाई करें। मंजर या बौर आने के दो माह पूर्व से फल बनने तक पानी नही दें। यदि आम के साथ कोई अन्य फसल भी उगा रहे है तो सिंचाई आम के पौधों की आवश्यकतानुसार ही करें या फिर ऐसी फसल का चयन करें जिसमें इस समय सिंचाई की आवश्यकता न हो। पौधों में फलन के समय पानी की अधिक आवश्यकता होती है|

अतः मटर के दाने के आकार के आम के फल से लेकर तुड़ाई तक सिंचाई करने से फलन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होगी। सिंचाई के लिये रूपांतरित थाला विधि अति उत्त्म हैं। इससे पानी की बचत एवं खाद का संचय होता हैं तथा मृदाजनित बीमारियाँ एक पौधे से दूसरे पौधे में नही आती हैं। सिंचाई हेतु टपक सिंचाई विधि (ड्रिप इरीगेशन) अपनायें।

पूरक पौधे एवं अंतराशस्य
आम के वृक्ष को पूर्णरूप् से तैयार होने में लगभग 10-12 वर्ष का समय लगता हैं। अतः प्रारंभिक वर्षो में आम के पौधों के बीच की खाली पड़ी भूमि में अन्य फलदार पौधे, दलहनी फसल अथवा सब्जियाँ लगायें एवं अतिरिक्त लाभ लें तथा भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढायें। पूरक पौधे के रूप में अमरूद, नींबू, अनार, पपीता, सीता फल (शरीफा) आदि फल के पौधे आम के पौधों के बीच लगायें। इस प्रकार एक हेक्टेयर भूमि में आम के 100 एवं 300 अन्य पूरक पौधे लगाये जा सकते हैं।

अंतराशस्य के रूप में फ्रेंचबीन, चना, अरह, मूँग, कुल्थी, भिण्डी आदि फसलें लगायें। थाले की भली भाँति गुड़ाई करें एवं समय पर खरपतवारों को नष्ट करें। पौधों के मध्य उत्पन्न खरपतवारों। को ग्लाईफोसैट या अन्य खरपतवारनाशक रसायनों के प्रयोग करके समय-समय पर नष्ट करें।

पुष्पन एवं फलन
वानस्पतिक विधि से प्रवर्धित पौधों में 3-4 वर्षो में फूल आना प्रारंभ हो जाते हैं। आम में परागण कीटों द्वारा होता है। अतः फूल आने के समय कीटनाशक रसायनों का प्रयोग न करें अन्यथा फल उत्पादन प्रभावित होगा। पौधें में आयु के साथ फलन में वृद्धि होती है। साधारणतयः 15-20 वर्ष से अधिकतम फल प्राप्त होते हैं। औसत आकार के फल प्राप्त करने के लिये लगभग 30-40 प्रतिशत फलों को तोड़ दें।

कीट/रोग नियंत्रण
१.आम का फुदका (मैंगो हाॅपर)
इस कीड़े का प्रकोप फरवरी एवं मार्च महीने में होता हैं। वयस्क कीड़े हल्के भूरे रंग के होते हैं जिनके शरीर पर काली एवं पीली रेखायें होती हैं, सिर बड़ा तथा शरीर पीछे की ओर नुकीला होता है। कीट के षिषु की सफेद तथा लाल आँख होती हैं। जो बाद में पीले रंग की हो जाती हैं। षिषु तथा वयस्क दोनों फूलों एवं पत्तियों का रस चूसते हैं।

परिणामस्वरूप फूल एवं फल झड़ने लग जाते हैं। कीट एक चिपचिपा रस उत्सर्जित करते हैं जो पत्तियों पर फैल जाता है एवं काली फफूंद उत्पन्न हो जाती है। जिससे पौधे का प्रकाश संशलेषण कम हो जाता है तथा पौधा कमजोर हो जाता हैं। नियंत्रण के लिये फाॅस्फोमिडान का 0.04 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।

२.आम का फुंगा (मिली बग)
कीट के बदन का रंग लाल, सिर, पंख, टाँगे तथा ऐंटिनी काले होते हैं। सिर छोटा, काला बिना मुखांग वाला होता हैं। मादा कीट का शरीर कोमल कुछ लालिमा लिये हुये हल्का भूरा होता हैं। जो मोम से ढक जाने के कारण सफेद दिखाई देता हैं। उदर में दस खण्ड स्पष्ट दिखाई देते हैं। कीट नवम्बर माह में सर्वप्रथम जड़ो के पास हजारों की संख्या में पाये जाते हैं। फरवरी माह में कीट के नियंत्रण हेतु दिसम्बर -जनवरी माह में तने के चारों ओर गुड़ाई तथा क्लोरपायरीफाॅस या मिथाईल पैराथियाॅन के 200 ग्राम डस्ट का भुरकाव करें या पाॅलीथिन की चादर से तने पर 20 से.मी. की पट्टी एवं ग्रीस लगाने से भी कीट का नियंत्रण किया जा सकता हैं।

३.दीमक
दीमक के प्रकोप से तने पर मिट्टी की एक पर्त चढ जाती हैं। कीट, पौधे की छाल एवं अन्य भागों को खाता हैं। इसके नियंत्रण हेतु थीमेट (10 जी) 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर या मिथाईल पैराथियान (10 प्रतिशत ) 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर भूमि में मिला कर इसका नियंत्रण करें। नियमित सिंचाई भी इसके नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं।

४.कालव्रण (एन्थ्रेक्नोज)
इस बीमारी का प्रकोप नई पत्तियों, टहतियों, फूलों और फलों पर होता हैं। षुरू में छोटे भूरे धब्बे बनते हैं और बाद में आपस में मिलकर बड़े-बड़े गोल भूरे धब्बे बनाते हैं। भण्डारण के समय फलों पर गोल, भूरे धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में काले भूरे रंग के हो जाते हैं। नियंत्रण हेतु मानेब 2 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। ब्लाइटाॅक्स 3 ग्राम/ लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से भी रोग पर काबू पा सकते हैं। फलों को बेनलेट या बैविस्टीन के घोल में डुबा कर भण्डारण करने से भी रोग को रोका जा सकता हैं।

५.बंचीटाप (मैंगो मैलफार्मेशन)
इस रोग में मंजरी एक गुच्छेे के रूप में परिवर्तित हो जाती है जो अधिक कड़े एवं हरे होते हैं इसमें सिर्फ नर फूल ही होते हैं। जिसके कारण इसमें फल नही लगते। नियंत्रण हेतु अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में गुच्छों की छटाई कर प्लैनोफिक्स 200 पी.पी.एम. का छिड़काव करें।

६.कोलसी (सूटी मोल्ड)
साधारणतयः जिन बागों में भुनगे, स्केल कीट तथा अन्य कीड़ों के प्रकोप को नियंत्रित नही किया जाता है, वहाँ यह रोग कीड़ों द्वारा निकाले हुये चिपचिपे मीठे पदार्थ के कारण फैलता है। इस चिपचिपे पदार्थ पर काली फफूंद की पपड़ी सी बन जाती हैं। यह काली फफूंद टहनियों को भी ढक लेता है, जिससे प्रकाश संशलेषण की क्रिया रूकने के कारण पौधों का विकास रूक जाता हैं।

नियंत्रण हेतु वेटासुल (0.2 प्रतिशत ) + मैटासिड (0.1 प्रतिशत ) + गम एकेसिया (0.3 प्रतिशत ) के छिड़काव कर रोग को प्रभावी ढंग से रोके। डायमिथियोएट अथवा मिथाईल डेमेटाॅन कीटनाशी का 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें जिससे भुनगे, हाॅपर और अन्य कीट नियंत्रित हो जायें। काली पपड़ी हटाने के लिये 2 ग्राम घुलनशील स्टार्च घुलनशील स्टार्च प्रति लीटर पानी में घोल कर पत्तियों पर छिड़काव करें।

तुड़ाई एवं भंडारण
आम, किस्म के अनुसार 85-105 दिनों में पकते हैं। फलों को काटने पर गूदे का रंग हल्का पीला हो तो फल को पका हुआ समझें। आम के पके फलों की तुड़ाई सुबह के समय इस प्रकार करें कि फलों को चोट एवं खरोंच न आये, चोटिल फलों पर फफूंद के प्रकोप से सड़न पैदा हो जाती हैं। जिससे आर्थिक हानि होती है। फलों को तुड़ाई के बाद छायादर स्थानों में रखें। अगर प्रशीतन की सुविधा हो तो इन फलों को प्रशीतित करें। जिससे फलों की भंडारण क्षमता बढ जाती है। यह सुविधा उपलब्ध न होने पर फलों को ठंड पानी में धोकर हवादार एवं छाया वाले स्थान में सुखा लें।

आम के फलों का श्रेणीकरण फलों के आकार, किस्म, वनज, रंग व परिपक्वता के आधार पर करें। फलों को सुरक्षित भंडारण, परिवहन तथा विपणन के लिये पैक करना अति आवष्यक हैं। भारत में अधिकतर फल बाँस, अरहर, शहतूत, फालसा आदि की लकड़ियों की बनी टोकरियों में पैक किये जाते हैं। आजकल कार्ड बोर्ड एवं फाईबर के भी बक्से पैकिंग के लिये उपलब्ध हैं। पेटीबंदी के लिये फलों के बीच में सूखी मुलायम घास, पेड़ के पत्ते, कागज की कतरन, धान का पुआल आदि का अस्तर के रूप में प्रयोग करें।

फलों की लम्बे समय तक उपलब्धता एवं गुणवत्ता बनाये रखने के लिये सुरक्षित भंडारण आवष्यक हैं। साधारणतः पके करे आम को कमरे के तापमान पर किस्मानुसार 4-8 दिन तक सुरक्षित भंडारण किया जा सकता हैं। भंडारण की निम्नलिखित विधियाँ हैं।

1. पूर्ण शीतलन –
आम के फलों को ठंडे पानी में 30 मिनट तक रखें जिससे फलों का तापमान कम हो जाये एवं भंडारण अवधि बढ़ जाये।

2. शीतलन –
फलों पर 2 प्रतिशत कैल्षियम नाईटेªट के घोल का छिड़काव करें ताकि फलों की भंडारण क्षमता बढ जाये। यह छिड़काव तुड़ाई पूर्व 7 दिन के अंतराल से तीन बार करें।

3. शीत भंडारण –
इस विधि में 7 डिग्री सेल्सियस से 9.5 डिग्री सेल्सियस तापमान तथा 85-90 प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता पर अलग-अलग किस्मों को 3 सप्ताह से चार सप्ताह तक भंडारित किया जा सकता हैं। कच्चे आम के फलों को कम तापमान (7 डिग्री सेल्सियस) पर ज्यादा दिनों तक रखने से फल ठीक से पक नही पाते हैं किंतु पूर्ण रूप से पके फलों को 7-10 डिग्री सेल्सियस पर 2-3 सप्ताह तक सुरक्षित भंडारित किया जा सकता हैं।

विपणन
आम के बाग सामान्यतः अधिकृत ठेकेदारों को नीलाम कर दिये जाते हैं, जिसके कारण बाग की देखभाल ठीक तरह से नही हो पाती है एवं फलों की तुड़ाई अधापकी या बिना पकी अवस्था में करने के कारण गुणवत्ता भी प्रभावित होती है अतः यदि आम का विपणन सहकारी समितियों के माध्यम से किया जाये तो आम उत्पादकों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य मिल सकता है |

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