धान उत्पादन की श्री(SRI) पद्धति : चावल उत्पादन दोगुना करने का पक्का तरीका

श्री पद्धति धान उत्पादन की एक तकनीक है जिसके द्वारा पानी के बहुत कम प्रयोग से भी धान का बहुत अच्छा उत्पादन सम्भव होता है। इसे सघन धान प्रनाली (System of Rice Intensification-SRI या श्री पद्धति) के नाम से भी जाना जाता है। जहां पारंपरिक तकनीक में धान के पौधों को पानी से लबालब भरे खेतों में उगाया जाता है, वहीं मेडागास्कर तकनीक में पौधों की जड़ों में नमी बरकरार रखना ही पर्याप्त होता है, लेकिन सिंचाई के पुख्ता इंतजाम जरूरी हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर फसल की सिंचाई की जा सके। सामान्यत: जमीन पर दरारें उभरने पर ही दोबारा सिंचाई करनी होती है। इस तकनीक से धान की खेती में जहां भूमि, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है, वहीं उत्पादन 300 प्रतिशत तक ज्यादा मिलता है। इस पद्धति में प्रचलित किस्मों का ही उपयोग कर उत्पादकता बढाई जा सकती है।

इस विधि को फ्रांसीसी पादरी फादर हेनरी डे लाउलानी द्वारा १९८० के दशक की शुरूआत में मेडागासकर में विकसित किया गया था इसलिए भी इसे धान उत्पादन की मेडागास्कर विधि कहते हैं।

श्री पद्धति से धान की खेती में निम्न लक्ष्य हासिल किए जाते हैं-

धान की खेती में ज्यादा ऊपज के लिए-

  • एक पौधे में ज्यादा संख्या में टिलर होना चाहिए
  • प्रभावशाली टिलर की संख्या ज्यादा होनी चाहिए
  • अनाज का वजन ज्यादा होना चाहिए

एक पौधे की क्षमता और संभावना का किस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है?

अगर पौधे में मौजूद संभावना का पूरी तरह से इस्तेमाल किया जाए तो-

  • सहायक जड़ें जो पानी और पोषक तत्वों को ग्रहण करते हैं वो स्वस्थ और अच्छी तरह से फैला हुआ होना चाहिए।
  • मिट्टी ऊपजाऊ हो और ढेर सारी जीवाणुओं के साथ हो।
  • पौधे स्वस्थ और मजबूत हों

श्री पद्धति से खेती करने के तरीके से उपरोक्त लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इस पद्धति को धान, रागी, गन्ना और दूसरी तरह की खेती में अपनाया जा सकता है।

श्री पद्धति का अर्थ-

”श्री” सिस्टम ऑफ राइस इंटेसिफिकेशन का आदिवर्णिक शब्द है। चावल की खेती का यह उन्नत तरीका साल 1983 में मेडागास्कर में विकसित किया गया था। आज यह दुनिया के कई इलाकों में फैल चुका है। यह एक धारणा है कि शोध के क्षेत्र में वैज्ञानिकों के द्वारा जो कुछ भी किया गया है वो आधुनिक है और अपेक्षित है। हालांकि ये किसान ही हैं जो खेती के श्री पद्धति को विकसित और रुपरेखा बनाने में अहम भूमिका निभाई है। इसलिए प्रत्येक किसान को वैज्ञानिक और प्रयोगधर्मी होना चाहिए। दूसरे के सुझावों को किसान आंख मूंदकर स्वीकार ना करें। इसके पीछे के सिद्धांतों को समझना चाहिए, स्थानीय परिस्थितियों और संसाधन को देखते हुए ही कोई फैसला करना चाहिए। श्री पद्धति की खेती के अहम पक्ष यहीं सब हैं।

(श्री न तो कोई नई किस्म है और ना ही कोई संकर है, यह सिर्फ धान की खेती करने का महज एक तरीका है, किसी भी धान की खेती इस पद्धति से की जा सकती है।)

धान की खेती की पूर्ण क्षमता का इस्तेमाल और ज्यादा ऊपज के लिए-

  • एक पौधे में ज्यादा संख्या में टिलर होने चाहिए
  • प्रभावकारी टिलर की संख्या ज्यादा होनी चाहिए
  • पुष्प-गुच्छ और प्रति पुष्प-गुच्छ में अनाज की संख्या ऊच्च होनी चाहिए
  • अनाज का वजन ज्यादा होना चाहिए
  • जड़ें लंबी और स्वस्थ हो

उपरोक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए आइये दूसरी पद्धति की संभावनाओं की तलाश करते हैं। कई मौके के साथ प्रत्येक पक्ष या पहलु में प्रतिबंधों,समस्याओं और चुनौतियों की खोज की जानी चाहिए। किसान के खेतों को परीक्षण के क्षेत्र में तब्दील कर दें।

श्री पद्धति की विशेषताएं जिसकी मदद से ऊच्च ऊपज हासिल की जा सके

विस्तृत या व्यापक पौधारोपण-

पौधों के बीच चौड़ी जगह की वजह से पौधे को ज्यादा जगह, हवा और सूर्य की रोशनी मिलती है। इसके परिणामस्वरुप प्रत्येक पौधा ज्यादा टिलर्स देता है। जड़ का स्वस्थ और व्यापक विकास होगा और वो ज्यादा पोषक तत्वों को हासिल करेगा। पौधा जितना मजबूत और स्वस्थ होगा टिलर्स की संख्या उतनी ही ज्यादा होगी। पुष्प-गुच्छ की लंबाई ज्यादा होगी। पुष्प-गुच्छ में ज्यादा संख्या में अनाज होगा और जिसका वजन भी ज्यादा होगा।

कम बीज-

जब एक पौधे से दूसरे पौधे के बीच ज्यादा दूरी अपनाई जाती है तो ऐसी स्थिति में बीज की कम जरूरत पड़ेगी। इसका परिणाम ऊपर बताए गए फायदे में दिखाई पड़ता है। आगे भी इसका प्रयोग आसान है और गुणवत्ता वाले बीज का उत्पादन होता है।

विकसित पौधे का रोपण (पौधारोपण)-

पौधारोपण तब शुरू किया जाना चाहिए जब पौधे में दो पत्ते आ जाते हैं। जब इस अवस्था में सावधानी से पौधारोपण किया जाता है तब इसका स्वस्थ विकास होता है और ज्यादा टिलर्स का पैदा होते हैं। यहा ज्यादा पैदावार की क्षमता को हासिल कर लेता है।

कम पानी-

खेत में जब पानी जमा होता है तब हवा के अभाव में जड़ मर जाते हैं। मृत जड़ का रंग भूरा या जंग के जैसा दिखता है। मिट्टी में मिट्टी के कण, हवा और नमी की मात्रा समान रुप से पाई जाती है। ऐसे में धान का पौधा तब भी जीवित रह जाता है जब पानी का जमाव होता है। पौधे के स्वस्थ विकास के लिए यह जरूरी है कि खेत में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए। जब रुक-रुक कर सिंचाई की जाती है तब जड़ को हवा मिलती है और स्वस्थ विकास होता है।

घास-पात को वापस मिट्टी में मिलाना-

खेत में से घास-पात या खर-पतवार को निकाल कर बाहर फेंकने की जगह अगर ‘वीडर’ का इस्तेमाल करते हुए उसे वापस मिट्टी में मिलाने से कई फायदे होते हैं। इसके परिणामस्वरुप दो फायदे होते हैं- पहला, मिट्टी को हवा मिलती रहती है, दूसरा- घास-पात को वापस मिट्टी में मिला दिया जाता है जो जैविक तत्व में तब्दील हो जाता है। इसकी वजह से जड़े और पौधे का स्वस्थ विकास होता है और ज्यादा ऊपज को प्राप्त किया जा सकता है।

जैविक खाद का प्रयोग-

मिट्टी में मौजूद जीवाणुओं के लिए जैविक तत्व खाद्य सामग्री का काम करते हैं। जब मिट्टी में जैविक तत्व मिलाए जाते हैं तो माइक्रोऑर्गेनिज्म की प्रक्रिया कई गुना बढ़ जाती है। जब जरूरत पड़ती है तब पोषक तत्वों को मौजूदा रुप में माइक्रोऑर्गेनिज्म ही उपलब्ध कराते हैं।

उपयुक्त मिट्टी का चुनाव-

उपयुक्त मिट्टी किसे कहते हैं ?

  • ऐसी मिट्टी जो खारापन या लवणता से प्रभावित नहीं हो
  • एक समान खेत जो सिंचाई के अनुकूल हो और पानी निकासी की व्यवस्था समुचित हो
  • ऊर्वरक मिट्टी हो

जो किसान एसआरआई (श्री) पद्धति का इस्तेमाल करना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले मिट्टी की जांच करवानी चाहिए और उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

2.1 लवणीय मिट्टी

लवणीय या अम्लीय मिट्टी एसआरआई (श्री) पद्धति से खेती के लिए अनुकूल नहीं होती है। बाढ़ की स्थिति में लवणीय मिट्टी में धान की खेती से होनेवाली पैदावार संतोषजनक हो सकती है। लेकिन ‘श्री’ पद्धति में मिट्टी को बीच-बीच में सुखाया जाता है। जब मिट्टी को सुखाने की अनुमति दी जाती है तब नमक सतह पर जमा हो जाता है जो चावल के पौधे को नुकसान पहुंचाता है।

2.2 भूखंड को एक समान करना

‘श्री’ पद्धति के लिए चयनित भूखंड एक समान होना चाहिए। जब भूखंड की सिंचाई की जाती है तब पानी पूरे खेत में एक समान तरीके से पहुंच जाना चाहिए। उसी तरह, जब जरूरत पड़े तब ज्यादा पानी को सुखाया जा सके।

2.3 ऊर्वरक मिट्टी

‘श्री’ पद्धति की खेती में रासायनिक ऊर्वरकों के मुकाबले जैविक खाद ज्यादा अच्छा परिणाम देते हैं। मिट्टी की सूक्ष्म जैविक प्रक्रिया में जैविक तत्व भोजन का कार्य करते हैं। सूक्ष्मजीव के साथ जब मिट्टी जीवंत अवस्था में होती है तब पौधे के लिए आवश्यक पोषक तत्व हर वक्त उपलब्ध होते हैं। इसका आशय यह है कि मिट्टी में पोषक तत्व मौजूद है उससे बढ़कर यह मायने रखता है कि पोषक तत्व किस अवस्था में मौजूद है। मिट्टी जब सूक्ष्मजीव के तत्वों से भरपूर होता है तब पौधे का स्वस्थ विकास होता है, कीटनाशकों, बीमारियों के खिलाफ अच्छी तरह से विकास करते हैं और ज्यादा ऊपज देते हैं। मिट्टी की ऊर्वरता के विकास के लिए तौर-तरीकों को शुरुआत से ही अपनाया जाना चाहिए। प्रत्येक साल कम से दो तरीकों का इस्तेमाल जरूर किया जाना चाहिए।

टैंक की गाद का उपयोग-

प्रति एकड़ 15 से 20 ठेला (कार्ट) या फिर 40 से 50 टन प्रति हेक्टेयर टैंक सिल्ट या गाद का प्रयोग किया जा सकता है। यह मिट्टी में नमी की क्षमता को और बढ़ाने का काम करता है जो बदले में बेहतरीन ऊपज भी देता है।

फार्म यार्ड मन्योर या खाद (एफवाईएम)

”श्री” पद्धति से खेती के लिए अच्छी तरह से अपघटित एफवाईएम, कम्पोस्ट(वानस्पतिक खाद) का इस्तेमाल जरूरी है। एफवाईएम की प्रति एकड़ में कम से कम 15 ठेला या तीन ट्रैक्टर (6 टन) का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। एफवाईएम की गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए। देर से तैयारी और वर्मीकम्पोस्ट का प्रयोग मशहूर होता जा रहा है।

हरी खाद की फसल (ग्रीन मन्योर क्रॉप)

ग्रीन मन्योर क्रॉप मिट्टी की ऊर्वरता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मैंने ग्रीन मन्योर क्रॉप की खेती 50 फीसदी फूल आने तक की अवस्था में की है और वापस इसकी जुताई की है। सनहेम्प और सेसबानिया ग्रीन मन्योर क्रॉप की सामान्य फसलें हैं। ग्रीन मन्योर क्रॉप की खेती 45 दिनों के लिए की जाती है और जैविक तत्व में अपघटित होने में यह 10 दिन और लेता है। जिस दिन मिट्टी में ग्रीन मन्योर क्रॉप मिलाया जा रहा हो उस दिन धान की नर्सरी की रोपाई करें। जैसे ही ग्रीन मन्योर क्रॉप अपघटित हो जाता है वैसे ही नर्सरी पौधारोपण के लिए तैयार हो जाता है। बढ़ोत्तरी और अपघटन के लिए पानी को सुनिश्चित करना और समय अवधि ग्रीन मन्योर क्रॉप के लिए बहुत जरूरी है।

लाइवस्टॉक पेनिंग

यह एक परंपरागत तरीका है जिसमे रात के दौरान खेत में पशुएं, बकरियां और भेड़ें जमा होती हैं। इन पशुओं के गोबर और मूत्र से मिट्टी और भी ऊर्वर हो जाती है।

  • नर्सरी उगाना

”श्री” पद्धति में नर्सरी बेड की तैयारी में बहुत ज्यादा सावधानी बरते जाने की जरूरत है जबकि 8 से 12 दिन पुराने पौधे को लगाना हो।

3.1 क्यारी (बेड) की तैयारी

क्यारी की चौड़ाई 4 फीट होनी चाहिए। जरूरत और जगह की उपलब्धता के हिसाब से लंबाई घट-बढ़ सकती है। एक एकड़ में रोपाई के लिए दो किलो बीज की जरूरत पड़ेगी। इसे उगाने या लगाने के लिए 400 वर्ग फीट की नर्सरी क्यारी की जरूरत पड़ेगी। सुविधानुसार एक अकेली क्यारी या फिर कई छोटी-छोटी क्यारियां (जैसे कि 4गुना 25 फीट की चार क्यारियां) तैयार की जा सकती हैं। 8 से 12 दिन पुराने पौधों की जड़ें 30 ईंच तक बढ़ सकती हैं, इसके लिए 5 से6 ईंच तक खड़ी क्यारियों को तैयार करने की जरूरत होती है।

नर्सरी क्यारियों की तैयारी इस तरह से की जाती है-

पहला स्तर- एक ईंच मोटी अच्छी अपघटित एफवाईएम

दूसरा स्तर- ढेड़ ईंच मोटी मिट्टी

तीसरा स्तर- एक ईंच मोटी अच्छी अपघटित एफवाईएस

चौथा स्तर- ढाई ईंच मोटी मिट्टी

इस सभी स्तरों को पूरी तरह से मिला दिया जाना चाहिए।

नर्सरी की क्यारियों के चारों ओर चैनल का निर्माण करें। क्यारी से गीली मिट्टी के नीचे गिरने से रोकने के लिए सभी किनारों को लकड़ी के पटरे, बांस या उचित सामान आदि की सहायता से सुरक्षित कर लेना चाहिए। (फार्म की खाद जड़ों के आसानी से निकलने में मदद करता है। अपघटित खाद में बढ़े हुए पौधे रोग के खिलाफ लड़ने में प्रतिरोधक क्षमता हासिल करते हैं। बाद में मुख्य खेत में भी पौधे बिना किसी रोग के स्वस्थ तरीके से बढ़ते हैं।)

(कम बीज के फायदे- 1. खर्च कम, जरूरत पड़ने पर फाउंडेशन सीड का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 2. गुणवत्ता वाले बीज का सावधानी से चुनाव और जमा किया जाना। 3. पानी में डूबाने के बाद खराब या खोखले अनाज तैरने लगते हैं जिसे हटाया जा सकता है, या फिर हाथ से भी चुन सकते हैं। 4. अगर”श्री” पद्धति का दोबारा अपनाई जाती है तो कम मात्रा में बीज के साथ भी बीज का उत्पादन किया जा सकता है और एक साल के भीतर कम मात्रा में बीज के साथ बड़े क्षेत्र में काम कर सकते हैं। )

3.2 बीज को भीगाना, फैलाना (प्रसारण)

नर्सरी उगाने में पहले से भीगा हुआ और अंकुरित बीज का इस्तेमाल एक पद्धति है। नर्सरी उगाने के दूसरे और तरीके भी हैं। यहां हम जानेंगे कि नर्सरी में लगाने से पहले बीज के पानी में भीगाने से पहले और अंकुरण के तरीके क्या हैं ?

बीज का अंकुरण-

बिचड़े (धान का बीज) को 12 घंटे भीगने के लिए छोड़ दें। भीगे हुए बीज को टाट के बैग में स्थानांतरित कर दें या ढेर लगा लें और इसे टाट के कपड़े से ढंक दें। इसे 24 घंटे के लिए छोड़ दें। इस वक्त बीज अंकुरित होता है। आप बीज से सफेद जड़ या रैडिकल को निकलते हुए देख सकते हैं। इस बीज का इस्तेमाल नर्सरी की क्यारी में किया जाता है। अगर रोपाई में देरी हुई तो, जड़ बढ़ने लगता है और चीजें एकसाथ जमा होने लगती है जिस वजह से ज्यादा जगह के साथ रोपाई में परेशानी होती है।

बीज को फैलाना या प्रसारण

बीज को एक समान फैलाने या प्रसारण को सुनिश्चित करने के लिए बीज को चार समान हिस्सों में बांट दें। एक के बाद एक प्रत्येक हिस्से को अलग-अलग फैला दें। दो बीज के बीच एक बीज जितनी दूरी होनी चाहिए। शाम के वक्त बीज को फैलाना अच्छा होता है।

बीज को ढंकना

बीज को अच्छी तरह से अपघटित एफवाईएम या सूखी मिट्टी की पतली परत से ढंक देना चाहिए। इस मकसद के लिए पुआल का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस परत की मदद से बीज की सीधे सूर्य और बारिश से रक्षा होती है। यह पक्षियों और चीटियों के द्वारा खाये जाने से भी बचाव करता है। जब शाखाएं निकलने लगे तब परत के तौर पर इस्तेमाल किये गए पुआल को हटा देना चाहिए।

क्यारियों में पानी देना

जरूरत के मुताबिक, क्यारियों की प्रतिदिन सुबह और शाम को सिंचाई करना चाहिए। क्यारियों के ऊपर पानी का छिड़काव बेहद कोमल तरीके से किया जाना चाहिेए। कोई भी इस मकसद के लिए गार्डन रोज केन का इस्तेमाल कर सकता है। अगर पानी डालने के लिए पॉट या बर्तन का इस्तेमाल किया जा रहा है तो उसे एक हाथ से पकड़ें ताकि पानी की धार लगातार ना गिरे। नर्सरी में पानी डालने का काम कैनाल में पानी डालकर भी हो सकता है जो नर्सरी की क्यारियों के पास होते हैं।

चटाई पद्धति से नर्सरी की स्थापना

पॉलिथिन सीट या फिर खाद के खाली बोरे में नर्सरी उगाई जाती है। स्टील या लकड़ी के फ्रेम वाला चार डिब्बा इस्तेमाल किया जाता है। फ्रेम की लंबाई चौड़ाई एक गुना 0.5 मीटर होती है। प्रत्येक डिब्बे की माप 0.125 वर्ग मीटर होगा। 4 सेमी की मोटी नर्सरी क्यारी का निर्माण एफवाईएम और मिट्टी से की जाती है। बीज को क्यारी में लगाकर इसे मिट्टी से ढंक दें। नर्सरी क्यारी की सिंचाई के बाद इसके फ्रेम को निकाल सकते हैं और उसका दोबारा इस्तेमाल भी कर सकते हैं। पहले पांच दिन तक क्यारी की सिंचाई रोज केन से प्रत्येक दिन जरूरत के मुताबिक दो से तीन बार करें। बाद में नर्सरी की क्यारी के पास कनाल के पानी को आने देने से नर्सरी में पानी डाला जा सकता है। नर्सरी को एक खंड में यानी एक साथ बड़े टुकड़े में उठाकर मुख्य खेत में लगा दिया जाता है।

फाइलोक्रोन्स और धान की पैदावार

श्री पद्धति में पहले पौधारोपण के 4 से 5 सप्ताह के बाद खेत अजीब दिखता है। छोटे-छोटे पौधे होते हैं और चौड़ाई में होते हैं। चूंकि वहां पानी का जमाव नहीं होता है इसलिए जमीन सूखी लगती है। इस स्तर पर पौधा खुद टिलर की तैयारी करता है। दूसरे महीने में टिलरिंग की तैयारी शुरू हो जाती है और तीसरे महीने में घातांक स्तर तक पहुंच जाता है। इसे समझने के लिए हमे धान में फाइलोक्रोन को समझना चाहिए।

फाइलोक्रोन में नये टिलर का उत्पादन पत्तियों और जड़ समेत होता है और जिसमे वक्त लगता है। यह मुख्यत: तापमान से प्रभावित होता है जिसमे दिन की लंबाई, आर्द्रता, मिट्टी में नमी, मिट्टी की संरचना, पोषक तत्वों की उपलब्धता, हवा का आना-जाना, सूर्य की रोशनी। या फिर यह 6 से 7 दिन का या उससे भी ज्यादा वक्त ले सकता है। वनस्पति के खिलने का चरण खत्म होने तक और पुष्पगुच्छ के खिलने की शुरुआत में चावल के पौधे के लिए 12 फाइलोक्रोन्स की प्रक्रिया पूरी कर लेना आदर्श माना जाता है। दो फाइलोक्रोन्स को पूरा करने के बाद नए टिलर (पौधे) में टिलरिंग(पौधाकरण) शुरू हो जाता है। इसका मतलब यह है कि नए टिलर्स (पौधे) की संख्या ज्यामितीय तरीके से बढ़ते हैं।

अगर अंकुरण को प्रथम फाइलोक्रोन का स्टेज माना जाता है तो दूसरे और तीसरे फाइलोक्रोन अवस्था में पौधाकरण को आदर्श माना जाता है। चौथे फाइलोक्रॉन से असाधारण विकास के बाद कोई बाधा नहीं आएगी। फाइलोक्रोन की अवस्था और टिलरों (पौधों) की संख्या भी उसी तरह होगी। ऐसा ही कुछ श्री पद्धति में होता है।

फाइलोक्रोन अवस्था

1   2   3   4   5   6   7   8   9   10   11   12

नए टिलर्स                        1   0   0   1   1   2   3   5   8   12   20   31

कुल टिलर्स                        1   1   1   2   3   5   8   13  21  33  53   84

मुख्य खेती की तैयारी

श्री पद्धति में मुख्य खेत की तैयारी ठीक उसी तरह से होती है जैसे कि परंपरागत तरीके में। हालांकि यह आदर्श स्थिति होगी कि सूखे खेत की जुताई हो और गारा बनाने का काम ट्रैक्टर से ना करवाया जाए। ग्रीष्म ऋतु में खासकर काली मिट्टी में खेत की जुताई कर तैयार रखी जाए। खेत में पानी डाला गया हो और पौधे का स्थानांतरण हो गया हो। इससे आगे की निराई-गुड़ाई का काम आसान हो जाएगा। अगर ट्रैक्टर से गारा बनाने का काम नहीं किया जाता है तो खर-पतवार चिपकेगा नहीं और बहुत कम ऊर्जा खर्च किये वीडर यानी निराई उपकरण का प्रयोग किया जा सकेगा। पौधारोपण के दौरान खेत एक समान अवस्था में होगा और कहीं भी जल जमाव नहीं हो पाएगा।

(अगर खेत छोटा है और बराबर किया हुआ है तो पानी का प्रबंधन आसान हो जाता है। अगर जरूरत पड़ी तो सिंचाई और पानी की निकासी के लिए कैनाल का निर्माण किया जा सकता है)

4.1 चौड़ा अंतराल

श्री पद्धति में चौड़ा अंतर अहम होता है। कतार से कतार के बीच दूरी और एक ही कतार में एक पौधे से दूसरे पौधे के बीच अंतर 10 गुना 10 इंच (25गुना25 सेमी) होना चाहिेए। इस तरह का अंतर रखने से श्री पद्धति में प्रत्येक वर्ग मीटर में 16 पौधे होंगे। अगर पौधे के जिंदा रहने को लेकर कोई संदेह है तो प्रत्येक टीले पर दो ही पौधे लगाया जाना चाहिेए। परंपरागत तरीके में प्रत्येक वर्ग मीटर में 33 से 40 टीले स्थानांतरित किए जाते हैं और प्रत्येक टीले में4 से 5 पौधे होते हैं।

(किस तरह का अंतर अपनाया जाना चाहिए-

हमने देखा है कि पौधों के बीच चौड़ा अंतराल रखने से पौधों का स्वस्थ विकास होता है और ऊपज भी अच्छी होती है। श्री पद्धति में 25गुना25 सेमी का अंतराल रखने की अनुशंसा की गई है। अंतराल को श्री पद्धति में अपनाया जाना चाहिेए। हालांकि, ऐसे कई किसान हैं जिन्होंने 50 गुना 50 सेमी और एक गुना एक मीटर का अंतराल रखने का प्रयोग किया और अच्छी ऊपज हासिल की।)

मार्कर का इस्तेमाल

10 गुना 10 ईंच के अंतराल पर प्रतिरोपण के कई तरीके हैं। एक रस्सी लें और प्रत्येक 10 ईंच पर एक गांठ बांध लें या फिर इतनी ही लंबाई की एक छड़ी लें। इस रस्सी का इस्तेमाल एक गाइड की तरह करें और एक कतार के बाद दूसरे कतार में प्रतिरोपण करते रहें।

हालांकि, 10 गुना 10 ईंच के अंतराल वाले मार्कर बाजार में उपलब्ध हैं जो प्रतिरोपण में मदद करते हैं। लकड़ी के साथ-साथ लोहे के बने मार्कर भी उपलब्ध हैं। बार मार्कर भी उपलब्ध हैं जो ग्रिड का इस्तेमाल करते हुए किसी भी तरीके से सीमांकन कर सकते हैं। साथ ही रोलर मार्कर भी होते हैं जो एक साथ ग्रिड का निर्माण करते हैं।

धान के पौधे का प्रतिरोपण वहां होता है जब ऊर्ध्व और क्षैतिज रेखाएं मिलती हैं। रोलर मार्कर एक वक्त पर 8 ग्रिड का निर्माण करते हैं। कतार सीधी रहे इसके लिए आदर्श तरीका यह है कि रस्सी को खेत की लंबाई में बांध देना चाहिए और रस्सी के साथ लाइन खींच लेनी चाहिए। एक बार लाइन खीचने के बाद,जैसे कि प्रति दो मीटर पर 12 से 13 ईंच का रास्ता छोड़ना आदर्श स्थिति है। एक गाइड के तौर पर रस्सी बांध लीजिए और रस्सी के साथ-साथ लाइन खींच लें।

रोपाई

पौधशाला से बिचड़ों को उखाड़ने के बाद जड़ों को धोकर रोपाई से पूर्व बिचड़ों की जड़ों को क्लोरपायरीफॉस कीटनाशी के घोल को एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में पूरी रात (12 घंटे) डूबो कर उपचारित करें। रोपाई के लिए 15-20 दिनों की उम्र के बिचड़ों का प्रयोग करें। रोपाई पाटा लगाने के पश्चात समतल की गई खेत की मिट्टी में 2 से 3 सेंटीमीटर छिछली गहराई में करें। यदि खेत में जलजमाव हो तो रोपाई से पूर्व पानी को निकाल दें। रोपाई से पूर्व रासायनिक खाद का प्रयोग करें। कतारों एवं पौधों के बीच की दूरी क्रमशः 20 सेंटीमीटर व 15 सेंटीमीटर रखते हुए एक स्थान पर केवल एक या दो बिचड़े की रोपाई करें। कतारों को उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर रखें।कीट प्रबंधन

खेत में दानेदार कीटनाशी 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बिचड़ों की रोपाई के 3 सप्ताह बाद डालें। इसके बाद मोनोक्रोटोफास 36ईसी 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर या क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का 15 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें ताकि फसल कीटों के आक्रमण से मुक्त रहे। एक हेक्टेयर में छिड़काव के लिए 500 लीटर जल की आवश्यकता पड़ती है। गंधी कीट के नियंत्रण के लिए इंडोसल्फान 4 प्रतिशत धूल या क्लीनालफास 1.5 प्रतिशत धूल की 25 किलोग्राम मात्रा का बुरकाव प्रति हेक्टेयर की दर से या मोनोक्रोटोफास 36 ईसी 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। उपरोक्त वर्णित दानेदार एवं तरल कीटनाशी के उपयोग से तनाछेदक कीटों की भी रोकथाम होगी।

पानी का प्रबंधन

किसान धान की खेती बहुत ज्यादा पानी की स्थिति में करते हैं ताकि खर-पतवार पर नियंत्रण किया जा सके। कनाल नियंत्रित क्षेत्र और बोरवेल वाले क्षेत्र में धान की खेती के लिए जरूरत से ज्यादा पानी इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या होता है जब मिट्टी को पानी से भर दिया जाता है। इस वजह से जड़ को हवा नहीं मिल पाती है और वह मर जाती है। यही वजह है कि श्री पद्धति में खेत को पानी से नहीं भरा जाता है। खेत में जब पतली दरारें दिखने लग जाती है तब दोबारा सिंचाई की जाती है। मिट्टी और वातावरण की स्थिति को देखते हुए सिंचाई की बारंबारता तय की जाती है।

वीडर का इस्तेमाल किये जाने से एक दिन पहले खेत की हल्की सिंचाई की जाती है। वीडिंग के बाद खेत से किसी भी हालत में पानी नहीं सुखाया जाना चाहिए। ऐसा करने पर खेत से सारे पोषक तत्व खत्म हो जाएंगे। पुष्प गुच्छ की शुरुआत की स्थिति से परिपक्व होने की स्थिति तक खेत में एक ईंच पानी बरकरार रखी जानी चाहिए। अनाज का 70 फीसदी हिस्सा कड़ा हो जाने के बाद पानी को खेत से निकाल लिया जाना चाहिए।

अगर खेत उबड़-खाबड़ है तो नीचे वाले क्षेत्र में पानी जमा हो जाएगा और ऊंची जगह वाले क्षेत्र सूख जाएंगे। अगर सिंचाई का अच्छी तरह से इस्तेमाल किया जाना है तो प्लॉट समतल और छोटे होने चाहिए।

स्थानीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए पानी को खेत में पूरी तरह भरने की जगह तीन चौथाई हिस्सा भरने के बाद रोक देना चाहिए। पानी अपने-आप पूरे खेत में फैल जाएगी। अगर पानी ज्यादा हो गया है तो उसे निकाल लेना चाहिए, या इसे खेत के अंत में छोटे से प्लॉट में सब्जी उत्पादन में इस्तेमाल किया जा सकता है।

खर-पतवार और बीमारी का प्रबंधन

श्री पद्धति की खासियत ये है कि इस तरह की खेती में रासायनिक कीटनाशकों और तृणनाशकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। पौधों के बीच ज्यादा दूरी और जैविक खाद के प्रयोग की वजह से पौधे का स्वस्थ विकास होता है और इसकी वजह से प्राकृतिक तौर पर कीट और बीमारियां कम होती हैं। कुछ जैविक मिश्रण के इस्तेमाल से कीट-पतंगों पर आसानी से नियंत्रण किया जा सकता है। इसी तरह के मिश्रण में एक नाम है अमृत जालान।

अमृत जालान की तैयारी

जरूरी सामान-

गाय का मूत्र- एक लीटर

गोबर-       एक किलो

गुड़ा (जैविक)- 250 ग्राम

पानी (क्लोरीन मुक्त)- 10 लीटर

तैयारी और इस्तेमाल-

प्लास्टिक या मिट्टी के बर्तन में ऊपर के सभी सामान को मिला लें। 24 घंटे के लिए खमीर बनने के लिए छोड़ दें। एक और दस के अनुपात में पानी मिलाकर इसे पतला कर लें। एक साफ कपड़े की मदद से इसे छान लें। इसका स्प्रे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। अमृत जालान का भंडारण 30 दिनों के लिए कर सकते हैं। हालांकि इसे प्रतिदिन हिलाने की जरूरत पड़ती है। जब यूरिया का इस्तेमाल किया जाता है तो यह कीट और बीमारियों की चपेट में आसानी से आ जाता है। लेकिन जब अमृत जलान का इस्तेमाल किया जाता है तब यह पौधों को ना केवल नाइट्रोजन देता है बल्कि हानिकारक कीटों और माइक्रोऑर्गेज्म को भी खत्म करता है।

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