स्वामीनाथन रिपोर्ट से किसानों को क्या होगा फायदा, क्यों उठ रही इसे लागू करने की मांग ?

महात्मा गांधी ने 1946 में कहा था, “जो लोग भूखे हैं, उनके लिए रोटी भगवान है।”इसी कथन को मार्गदर्शी सिद्धांत बनाते हुए 18 नवम्बर 2004 को कृषि की समस्या को गहराई से समझने और किसानों की प्रगति का रास्ता तैयार करने के लिए राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग के चेयरमैन कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के जनक डॉ. एमएस स्वामिनाथन थे। इसलिए ही इसे स्वामिनाथन रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।

आयोग ने सिफ़ारिश की थी कि किसानों को उनकी फ़सलों के दाम उसकी लागत में कम से कम 50 प्रतिशत जोड़ के दिया जाना चाहिए। पूरे देशभर का किसान इसी सिफ़ारिश को लागू करने की माँग को लेकर सड़कों पर हैं। लेकिन तमाम वादे करने के बाद भी इस सिफ़ारिश को न ही कांग्रेस की सरकार ने लागू किया गया और न ही वर्तमान की भाजपा सरकार ने।

भाजपा ने 2014 के आम चुनाव के समय अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि वे फ़सलों का दाम लागत में 50 प्रतिशत जोड़ कर के देंगे। लेकिन जब हरियाणा के समलखा से आरटीआई एक्टिविस्ट पीपी कपूर की एक आरटीआई पर सरकार ने जवाब दिया कि वे इसे लागू नहीं कर सकते हैं।

लगभग दो सालों तक भारत के तमाम कृषि संगठन,जानकार और किसानों से बात करने के बाद आयोग ने अपनी कई महत्वपूर्ण सिफ़ारिशों के साथ कुल पाँच रिपोर्ट तत्कालीन यूपीए सरकार को 2006 में सौंप दी थी। पर अफ़सोस की दस साल बीत जाने के बाद भी अभी तक इस रिपोर्ट को पूरी तरीक़े से लागू नहीं किया गया है।

इस रिपोर्ट में मुख्यतः फ़सलों की मूल्य निर्धारण नीति और कर्ज़ा नीति पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। इस पर पूर्व जदयू अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद शरद यादव कहते हैं, “ स्वामिनाथन आयोग की एक रेकमेंडेशन है कि जो साल भर में किसान की लागत है, उसकी मेहनत है, उसे जोड़कर डेढ़ गुना दाम देंगे।

इस सरकार ने सप्रीम कोर्ट में जाकर हाथ खड़े कर दिए कि हम यह दाम नहीं दे सकते। जो लोग सरकारी नौकरियों में हैं, उनका वेतन तो 150 गुना बढ़ाया गया है और किसान का 70 बरस में सिर्फ 21 गुना बढ़ाया है। देश का किसान जब तक बगावत नहीं करेगा उसे उसका हक़ नहीं मिल सकता हैं।यह पूरा तंत्र किसान विरोधी है 70 बरस से। इस तंत्र से कोई आशा करना बेकार है।”

स्वामिनाथन रिपोर्ट को लागू ना करने पर खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं, “सरकारें ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि इनकी जो नीति है वो खाद्य महंगाई को कम रखने की है, इसलिए आपको खाद्य मूल्य को कम रखना होगा और इसका मतलब है कि इसका ख़ामियाज़ा सीधे किसान को ही भुगतना है। इसलिए मै ये कहना चाहता हूँ कि सरकार की मंशा है कि किसान को खेती से ही बाहर कर दिया जाए।”

वर्तमान समय में कृषि मंत्रालय के अधीन आने वाली संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफ़ारिश पर केंद्र सरकार फ़सलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है। सरकार का कहना है कि स्वामिनाथन आयोग द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) सरकार द्वारा इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि एमएसपी की सिफ़ारिश कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा संबंध घटकों की क़िस्म पर विचार करते हुए वस्तुपरक मानदंड पर की जाती है।

इस पर पूर्व कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री कहते हैं, “कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा खेती के ख़र्चे का हिसाब लगाने की जो प्रणाली है वो बहुत ही त्रुटिपूर्ण है। ये ना तो किसी आर्थिक आधार पर तर्कपूर्ण है और ना ही किसी वैज्ञानिक आधार पर।“

वही मज़दूर किसान शक्ति संगठन की सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय कहती हैं, “चाहे जो भी सरकार सत्ता में हो, हमेशा ही आर्थिक नीतियां कारपोरेट और मुक्त बाज़ार की वकालत करने वाले अर्थशास्त्रियों को ध्यान में रख कर तय की जाती हैं जिन्हें उन ज़मीनी हक़ीक़त की कोई जानकारी नहीं होती जो ग़रीब हर रोज़ सामना करता है। यदि हम चाहते हैं कि देश में किसान बचा रहे तो स्वामिनाथन रिपोर्ट को तुरंत लागू कर देना चाहिए।“

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि फ़सलों के सही दाम ना मिलना, मंडी की अव्यवस्थता, पानी की सही व्यवस्था ना होना, समय पर कर्ज़ ना मिलना, भूमि सुधार का अधूरा रह जाना ये सब किसानों की समस्या के मुख्य कारक है। वर्तमान में किसान की स्थिति पर स्वामिनाथन कहते हैं कि खेती एक जीवन देने वाला उद्योग है और यह बहुत दुखद है कि हमारे देश का किसान ख़ुद ही अपना जीवन समाप्त कर लेता है।

यदि रबी फ़सलों के दाम स्वामिनाथन रिपोर्ट के आधार पे तय किए जाते तो उनके दाम कुछ इस प्रकार होते

                                                                                                                           krishi sahayak mulya talika

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